करेंसी वार क्या है व इसकी पृष्ठभूमि?
- विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं द्वारा अपने निर्यात को बढ़ाने के लिये जानबूझकर अपनी मुद्राओं के मूल्य में कमी करना ही करेंसी वार कहलाता है। इस परिघटना को ‘प्रतिस्पर्द्धी अवमूल्यन’ (Competitive Devaluation) के रूप में भी जाना जाता है।
- इस प्रतिस्पर्द्धी अवमूल्यन की वजह से विदेशी विनिमय की परिवर्तनशीलता नाटकीय ढंग से होती है, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और निवेश में एकाएक वृद्धि और गिरावट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
- विदेशी निवेशकों द्वारा बाजार से धन निकालने पर अर्थव्यवस्था में पूंजी प्रवाह का आकार सिकुड़ जाता है, जिसकी परिणति अर्थव्यवस्था पर अवस्फीतिकारी दबाव (deflationary pressure) के रूप में हो सकती है।
- वर्तमान में हम लोग करेंसी वार के तीसरे दौर में प्रवेश कर चुके हैं। इससे पहले दो करेंसी वार हो चुके हैं।
- पहला- यह 1921 से 1936 तक चला। प्रथम विश्व युद्ध से उपजी परिस्थितियों ने ब्रिटेन, फ्राँस, जर्मनी एवं अमेरिका जैसे देशों को अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करने के लिये बाध्य किया जिसकी परिणति अनियंत्रित महँगाई अथवा मुद्रास्फीति के रूप में सामने आई।
- दूसरा- 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने विदेशी केंद्रीय बैंकों द्वारा डॉलर की स्वर्ण में परिवर्तनीयता पर रोक लगा दी तथा सभी आयातों पर 10% का अतिरिक्त अधिभार आरोपित कर दिया।
वर्तमान करेंसी वार
- नवंबर 2008 तक कई वित्तीय संस्थाओं के ढह जाने के बाद अमेरिकी फेडरल बैंक ने ‘क्वांटिटेटिव ईजिंग’ की नीति अपनाकर और ब्याज दरों को शून्य के करीब रखकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को निम्न विकास दर और उच्च बेरोज़गारी की स्थिति से बाहर निकालने का निर्णय लिया।
- इस नीति से अमेरिकी अर्थव्यवस्था अवस्फीति से तो बाहर आ गई लेकिन डॉलर की तरलता में वृद्धि कर दी जिसकी वजह से भारत, इण्डोनेशिया और तुर्की जैसे दुनिया के उभरते हुए बाजारों में पूंजी प्रवाह की मात्र काफी बढ़ गई जिसकी परिणति मुद्रास्फीति डॉलर के अधिमूल्यन तथा डॉलर के सापेक्ष अन्य उभरते हुए बाजारों की मुद्राओं की प्रतिस्पर्द्धी क्षमता में कमी के रूप में सामने आई।
- इसी राह पर चलते हुए यूरोपियन सेन्ट्रल बैंक ने यूरो-जोन संकट से निपटने के लिये 2016 के अंत तक ‘क्वांटिटेटिव ईजिंग’ की नीति अपनाने का निर्णय लिया।
युआन का अवमूल्यन तथा भावीचुनौतियाँ
- युआन का अवमूल्यन एक ऐसे संक्रमण को इंगित करता है जिसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था एक उदार विनिमय दर से अधिकाधिक बाजार आधारित विनिमय दर की ओर उन्मुख है।
- चीन का ऋण भार उसके जी.डी.पी. अनुपात की तुलना में बहुत अधिक है। साथ ही वस्तुओं और कच्चे तेल की कीमतों में हुई शुद्ध गिरावट की तुलना में उसका आयात बिल भी लगातार कम हो रहा है। इसी वजह से चीन युआन का अवमूल्यन करने के लिये प्रेरित हुआ।
- एक स्थिर विनिमय दर को बनाए रखने के क्रम में चीन अपने विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी ट्रेजरी बॉण्ड में निवेश कर रहा है। साथ ही, चीन अपने विदेशी मुद्रा भंडार को एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक में भी लगाना चाहता है ताकि कम-से-कम पूर्वी एशिया में वह स्पष्ट रूप से ‘डॉलर जोन’ को ‘रेन्मिन्बी जोन’ से प्रतिस्थापित कर सके।
- चीन अन्य एशियाई मुद्राओं (जो युआन जितनी मजबूत नहीं हैं) से यह अपेक्षा रखता है कि वे प्रतिस्पर्द्धी अवमूल्यन की नीति अपनाएँ जिससे अंततः युआन उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं तथा डॉलर की तुलना में विजेता बनकर उभरे।
करेंसी वार से उत्पन्न समस्याएँ
- करेंसी वार से विभिन्न देशों के बीच डंपिंग तथा आयात शुल्कों एवं काउंटर वेलिंग शुल्कों में वृद्धि हुई है।
- जिन देशों के पास सीमित मात्र में संसाधन होते हैं, वे मजबूत निर्यात प्रधान अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भर हो जाते हैं। ऐसे में इन देशों की कमजोर मुद्रा आयात लागत को बढ़ा देती है, वहीं मुद्रा को कमजोर बनाए रखना भी मुश्किल हो जाता है क्योंकि इसकी वजह से बाजार में तरलता बढ़ने से मुद्रास्फीति भी बढ़ जाती है।
इस संदर्भ में भारत की रणनीति क्या होनी चाहिये?
चीन की नीति का अनुसरण और ‘प्रतिस्पर्द्धी अवमूल्यन’ जैसा कोई भी कदम भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये निरर्थक ही होगा क्योंकि कठोर व्यापार नीतियों, प्रशुल्क और गैर-प्रशुल्कीय बाधाओं की वजह से इस तरह के अवमूल्यन का प्रभाव अंततः नगण्य ही हो जाएगा।
पिछले एक साल के आँकड़े दर्शाते हैं कि भारतीय रुपये में खास उतार-चढ़ाव नहीं देखा गया तथा बाजार आधारित विनिमय दर के आधार पर विश्व जी.डी.पी. में भारत का योगदान भी सतत् बना रहा है। इसके अलावा चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा भी एक चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसे में कोई भी अव्यावहारिक करेंसी वार किसी अन्य देश की तुलना में भारत की व्यापार स्थिति के लिये अधिक मुसीबतें खड़ी कर सकता है।
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