- कला के विभिन्न रूपों में ‘चित्रकारी’ कला का सूक्ष्मतम प्रकार है जो रेखाओं और रंगों के माध्यम से मानव चिंतन और भावनाओं को अभिव्यक्त करता है।
- प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य गुफाओं में रहता था तो उसने गुफाओं की दीवारों पर चित्रकारी की।
- धीरे-धीरे नगरीय सभ्यता का विकास होने पर यह चित्रकारी गुफाओं से निकलकर वस्त्रों, भवनों, बर्तनों, सिक्कों, कागज़ों आदि पर आ गई।
प्रागैतिहासिक चित्रकला
- भारत में प्रागैतिहासिक चित्रकला को प्रकाश में लाने का श्रेय कार्लाइल, काकार्बन और पंचानन मिश्र तथा संस्थाओं में एशियाटिक सोसाइटी को जाता है, जिन्होंने मिर्ज़ापुर (कैमूर) की पहाड़ियों के गुफाचित्रों को उद्घाटित किया।
भीमबेटका
- इसकी खोज 1957-58 में डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी।
- यह रायसेन ज़िले (M.P.) का एक पुरापाषाणिक गुफा आवास है जिसकी निरंतरता मध्य ऐतिहासिक काल तक रही।
- यह विन्ध्याचल की पहाड़ियों के निचले छोर पर है तथा इसके दक्षिण में सतपुड़ा की पहाड़ियाँ आरंभ हो जाती हैं।
- भीमबेटका में 700 से अधिक शैलाश्रय हैं जिनमें 400 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित हैं।
प्रागैतिहासिक चित्रकला की विशेषताएँ:
- इन चित्रों में अधिकतर आखेट के चित्र प्राप्त होते हैं।
- इनमें पशु-पक्षियों का अंकन मुद्राओं के साथ करने का प्रयास किया गया है।
- आखेटकों के पास नोंकदार भाले, ढाल और धनुष-बाण आदि दिखाए गए हैं।
- कुछ चित्रों में आदि धर्म और जादू-टोने एवं कृषक जीवन का चित्रण भी किया गया है।
- रंगों में व्यापकता नहीं मिलती, हालाँकि कुछ चित्रों को गेरू, खड़िया और काले आदि रंगों से रंगा गया है।
- प्रागैतिहासिक चित्रकला के अन्य नमूने मिर्ज़ापुर (उ.प्र.), रायगढ़ (महाराष्ट्र), पंचमढ़ी एवं होशंगाबाद (म.प्र.), शाहाबाद (बिहार) आदि से मिले हैं।
- भारत की प्रागैतिहासिक गुफा चित्रकारी, स्पेन की शैलाश्रय चित्रकलाओं से असाधारण रूप से मेल खाती है।
- ये चित्रकलाएँ आदिम अभिलेख हैं जिन्हें अपरिष्कृत लेकिन यथार्थवादी ढंग से तैयार किया गया है।
हड़प्पाकालीन चित्रकला
- यह एक नगरीय सभ्यता थी जिसमें मिट्टी के खिलौनों, मुहरों, बर्तनों आदि पर चित्रकला की छाप है।
- यहाँ अधिकांश पात्रों पर लाल रंग चढ़ाकर काले रंग से चित्रकारी की गई है। यह B.R.W. (Black and Red Ware) संस्कृति का द्योतक है।
- यहाँ चित्रों में ज्यामितीय आरेखनों के अलावा मानव, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों आदि का चित्रांकन भी मिलता है।
- कुछ आरेखनों में जगह भरने हेतु बिन्दुओं और सितारों का प्रयोग किया गया है।
संक्रमण काल
- सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद चित्रकला की धारा क्षीण होती प्रतीत होती है।
- वैदिककाल और महाजनपदकाल में भी चित्रकला का विस्तृत ब्यौरा नहीं मिलता है।
- बौद्ध एवं जैन सहित अन्य धार्मिक विचारधाराओं के विस्तार ने चित्रकला के विकास में महती भूमिका निभाई।
- 500 ई.पू. से 200 ई.पू. के बीच जोगीमारा (छत्तीसगढ़) और सीताबेंग की गुफाओं में प्राय: लाल, काले एवं सपेद रंगों से चित्रकारी के साक्ष्य मिले हैं।
- सरगुजा (छत्तीसगढ़) की रामगढ़ पहाड़ियों में जोगीमारा और सीताबेंग नामक गुफाएँ स्थित हैं।
- ‘जोगीमारा’ भारतीय चित्रकला की निरंतरता का प्रतीक है।
- उसके बाद 200 ई. से लेकर 700 ई. सन् के काल में अजंता, बाघ और बादामी में भारतीय चित्रकला ने ऊँचाइयाँ छुई हैं।
अजंता चित्रकला
- महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले में सह्याद्रि की पहाड़ियों में स्थित अजंता में कुल 30 गुफाएँ हैं।
- घोड़े की नाल के आकार (अर्द्धवृत्ताकार) की ये गुफाएँ वगुर्ना नदी घाटी के बाएँ छोर पर एक आग्नेय चट्टान को काटकर बनाई गई हैं, जिसके निष्पादन में 8 शताब्दियों का समय (2nd Cent. B.C to 7th Cent. A.D) लगा।
- गुफाओं की दीवारों (भित्ति) तथा छतों पर बनाए गए चित्रों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चित्र जातक कथाओं (बुद्ध) से जुड़ा हुआ है।
- अजंता की गुफा संख्या 9 और 10 में प्राचीनतम चित्रकलाएँ हैं जिनकी समानता अमरावती की मूर्तिकला और सातवाहन काल (2nd B.C) की मानव आकृतियों की वेशभूषा, आभूषणों तथा जातीय विशेषताओं से है।
- गुफा संख्या 16&17 के चित्र पाँचवी सदी के दौरान बने हैं, इनमें आंध्र और वाकाटक शासकों की चर्चा भी है।
- 16वीं गुफा में सर्वश्रेष्ठ चित्र मरणासन्न राजकुमारी तथा महात्मा बुद्ध के उपदेश का है।
- गुफा संख्या 1, 2 और 5 के चित्र पाँचवी सदी से छठी सदी में यानी सबसे बाद में बने।
- इन गुफाओं (1, 2, 5) में अत्यधिक अलंकरण और आभूषणीय अभिकल्पों के साथ जातक की कहानियों को चित्रित किया गया है।
- गुफा संख्या एक में पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, मार-विजय तथा चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय और ईरान के ससानी साम्राज्य के बादशाह खुसरो द्वितीय के साथ दूतों के आदान-प्रदान का चित्र भी है।
- अजंता की चित्रकला में रेखाओं के ज़रिये गहरे-चमकदार गुलाबी, भूरे, सिन्दूरी, हरे आदि रंगों से ऐसा चित्र बनाया गया है, जिसकी चमक हज़ारों साल बाद भी शेष है।
- अजंता के चित्रों की एक खास विशेषता इसके पात्रों का स्वभाव चित्रण है।
बाघ गुफाओं की चित्रकला
- ये गुफाएँ मध्य प्रदेश में धार ज़िले की कुकशी तहसील में स्थित विंध्य पर्वत श्रेणी में अवस्थित हैं।
- बाघ में कुल नौ गुफाएँ हैं जो अजंता के समकालीन हैं।
- बाघ की गुफाओं में बौद्ध धर्म के अलावा सामान्य जीवन के चित्र भी बहुतायत में मिलते हैं। यानी ये अजंता की तुलना में अधिक सांसारिक और मानवीय हैं।
- बाघ की चित्रकलाएँ अजंता की गुफा संख्या एक और दो की चित्रकलाओं के सादृश्य हैं; यानी अलंकृत एवं आभूषण युक्त चित्र।
- शैलीगत दृष्टि से अजंता और बाघ दोनों समान हैं किंतु बाघ का खाका भी प्रभावशाली है।
भारत में प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थस्थल | |
बौद्ध तीर्थस्थल | राज्य |
स्पितुक मठ, शे (Shey) मठ | लद्दाख (जम्मू-कश्मीर) |
धनखड़ मठ, की (Key) मठ, ताबो मठ | हिमाचल प्रदेश |
तवांग मठ | अरणाचल प्रदेश |
रूमटेक मठ | सिक्किम |
महाबोधि मंदिर, बोधगया | बिहार |
घूम मठ | पश्चिम बंगाल |
ललितागिरि, वज्रगिरी और रत्नागिरि | ओडिशा |
चूड़ामणि विहार (नागापट्टनम), कांचीपुरम मठ | तमिलनाडु |
नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी महाविहार | बिहार |
सिरपुर बुद्ध विहार | छत्तीसगढ़ |
बादामी चित्रकला
- उत्तरी कर्नाटक के बागलाकोट ज़िले के मालप्रभा नदी बेसिन में बादामी नामक जगह स्थित है जिसकी स्थापना का काल छठी शताब्दी माना जाता है।
- चालुक्य वंश के कला संरक्षक राजा मंगलेश को इसका श्रेय दिया जाता है।
- बादामी या वातापी में ब्राह्मण-हिन्दू धर्म, जैन धर्म से संबंधित चित्रकला का प्राचीनतम साक्ष्य है।
- यहाँ शिव-पार्वती, नटराज तथा इंद्र सभा का चित्रण दर्शनीय है।
- वातापी कला में चित्र बनाने की प्रविधि बाघ और अजंता से मिलती-जुलती है।
- अजंता, बाघ और बादामी की चित्रकलाएँ, उत्तर तथा दक्षिण की शास्त्रीय परंपरा का उत्तम प्रतिनिधित्व करती हैं।
सित्तनवासल चित्रकला
- तमिलनाडु के पुदुकोट्टई ज़िले में सित्तनवासल की गुफाओं में स्थित मंदिरों की दीवारों पर नौवीं सदी के दौरान चित्र बनाए गए हैं।
- ये गुफाएँ सिद्धों, शैव और जैन धर्म से जुड़े लोगों की रही हैं।
- सित्तनवासल की चित्रकलाएँ जैन विषयों और प्रतीक प्रयोगों से गहरे रूप से जुड़ी हुई हैं, लेकिन अजंता के समान ही मानदंड एवं तकनीकों का प्रयोग करती हैं।
- यहाँ के मंदिर की छत पर एक सघन कमल वन चित्रित किया गया है।
- यहाँ के चित्रों में पांड्य राजा-रानी और एक नर्तकी के चित्र को प्रशंसा मिली है।
एलोरा चित्रकला की विशेषताएँ
- इसे मराठी में वेरूललेणी या वेरूल की गुफाएँ कहते हैं जो अजंता की गुफाओं से मात्र 9 किलोमीटर दूर हैं।
- माना जाता है कि इन गुफाओं में 300 ई. सन् से एक हज़ार ईस्वी तक चित्रांकन का काम हुआ है।
- यह भारत के तीनों प्राचीन धर्मों (हिन्दू, जैन एवं बौद्ध) से जुड़ा हुआ है।
- यहाँ की गुफाओं में कैलाश, लंकेश्वर, इंद्र-सभा और गणेश के चित्र दीवारों पर मिलते हैं।
- एलोरा की चित्रकलाएँ अजंता के शास्त्रीय मानदंड से भिन्न हैं, यानी इनमें कला-कौशल के ह्रास के संकेत स्पष्ट दिखते हैं।
- एलोरा की चित्रकलाओं की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लाक्षणिक विशेषताएँ हैं- सिर को असाधारण रूप से मोड़ना, भुजाओं के कोणीय मोड़, गुप्त अंगों का अवतल मोड़, तीखी प्रक्षिप्त नाक और बड़े-बड़े नेत्र।
- एलोरा की चित्रकला मध्यकालीन विशेषताओं का संकेत भी देती है।
- एलोरा की गुफा-मंदिर सं. 32 में उड़ती हुई आकृतियों व बादलों का दृश्य अत्यंत सुन्दर है।
दक्षिण भारतीय भित्ति चित्रकारी
- दक्षिण भारत में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भित्ति चित्र तंजौर (तमिलनाडु) के राजराजेश्वर मंदिर की दीवारों पर नृत्य करती आकृतियाँ तथा तंजावुर के वृहदेश्वर मंदिर की दीवारों पर नृत्य करती युवती का है।
- भारत में भित्तिचित्र की अंतिम श्रृंखला हिंदपुर के निकट लेपाक्षी मंदिर अनंतपुर (आंन्ध्र प्रदेश) में पाई जाती है, जो 16वीं शताब्दी की है।
- यहाँ शैव एवं धर्मनिरपेक्ष विषयों को चित्रवल्लरी में चित्रित किया गया है।
भित्ति चित्रकारी की तकनीक
- इस बारे में पाँचवीं-छठी शताब्दी के एक संस्कृत पाठ ‘विष्णुधर्मोत्तरम्’ में चर्चा की गई है।
- इनका एकमात्र अपवाद तंजावुर का राजराजेश्वर मंदिर है, जहाँ वास्तविक भित्तिचित्र शैली के दर्शन होते हैं।
- विष्णुधर्मोत्तरम् के अनुसार सतह पर चूना पलस्तर की एक अत्यधिक पतली परत से लेप किया जाता था और ऊपर जलरंगों (Water Colour) से चित्र बनाए जाते थे।
- ‘कूची’ को बकरी, ऊँट, नेवला आदि पशुओं के बालों से तैयार किया जाता था।
- कलाकार द्वारा लाल रंग से अपनी प्रथम योजना बनाने के पश्चात् अर्द्ध-पारदर्शी एकवर्णीय पक्की मिट्टी लगाई जाती थी ताकि उस कांच से चित्र की रूपरेखा को देखा जा सके।
- इसमें मुख्यत: गैरिक लाल, चटकीला लाल (सिंदूरी), गैरिक पीला, जम्बुकी नीला, लाजवर्द, काजल, चाक, एकवर्ण और हरे रंग का प्रयोग किया गया था।
पालकालीन चित्रकला
- इस शैली की चित्रकला को बंगाल के पाल शासकों ने प्रश्रय दिया, जो बौद्ध धर्म के संरक्षक थे।
- पालों का शासन 750 ई. से 1175 ई. तक चला, जिसमें नालंदा, ओदंतपुरी, विक्रमशिला और सोमापुर के बौद्ध महाविहार बौद्ध शिक्षा तथा कला के महान केन्द्र बने।
- पाल चित्रकला की विशेषता इसकी चाकदार रेखा और वर्ण की हल्की आभाएँ हैं।
- यह एक प्राकृतिक शैली है, जो समकालीन कांस्य पाषाण मूर्तिकला के आदर्श रूपों से मिलती है।
- पाल चित्रकला अजंता की शास्त्रीय कला के कुछ भावों को प्रतिबिम्बित करती है।
- इस शैली के चित्र ताड़-पत्र पर बनाए जाते थे जिसमें बीचों-बीच महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्र सजाए जाते थे और दोनों किनारों पर बड़े और सुन्दर अक्षरों में लिखा जाता था।
- इन चित्रों में बौद्ध धर्म की शाखा तंत्रयान का प्रभाव भी दिखाई देता है।
पश्चिम भारतीय शैली
- चित्रकला की पश्चिम भारतीय शैली गुजरात, राजस्थान और मालवा क्षेत्र में प्रचलित थी।
- पश्चिमी भारत में कलात्मक क्रियाकलापों का प्रेरक बल जैनवाद (Jainism) था।
- इसे चालुक्य वंश के राजाओं का संरक्षण प्राप्त था जिन्होंने 961 ई. से 13वीं शताब्दी के अंत तक गुजरात, राजस्थान तथा मालवा के कुछ हिस्सों पर शासन किया था।
- इस शैली में नाक-नक्शे की कोणीयता सहित आकृतियाँ सपाट हैं और नेत्र आकाश की ओर बाहर निकले हुए हैं।
- इस शैली के चित्र ताड़-पत्रों, कपड़ों और कागज़ पर बनाए गए हैं।
- जैनग्रंथ ‘कल्पसूत्र’ की कालकाचार्य कथा को बार-बार लिखा गया था और चित्रकलाओं के माध्यम से सचित्र बनाया गया।
भारत में प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थल | |
जैन तीर्थस्थल | राज्य |
श्रवण बेलगोला/ चंद्रगिरी पर्वत | कर्नाटक |
दिलवाड़ा जैन मंदिर, माउंट आबू | राजस्थान |
शत्रुंजय पहाड़ियाँ, अकोटा, पालिताना | गुजरात |
ग्वालियर, चंदेरी और खजुराहो | मध्य प्रदेश |
ग्वालियर, चंदेरी और खजुराहो मध्य प्रदेशराजगीर, वैशाली | बिहार |
उदयगिरि और खंडागिरी की गुफाएँ | ओडिशा |
अन्य प्रकार की शैलियाँ
- 15वीं शताब्दी के दौरान चित्रकला की फारसी शैली ने पश्चिम भारतीय शैली को प्रभावित करना शुरू कर दिया था, जैसे- पांडुलिपियों में गहरे नीले और सुनहरे रंगों का प्रयोग।
- बुस्तान शैली मालवा के सुल्तान नादिरशाह खिलजी के लिये हाजी महमूद (चित्रकार) तथा शहसवार द्वारा निष्पादित की गई।
- इंडियन ऑफिस लाइब्रेरी, लन्दन में उपलब्ध ‘निमतनामा’ (पाक कला की पुस्तक) मालवा चित्रकला का एक सचित्र उदाहरण है।
- इस दौर का प्रतिनिधित्व लघु चित्रकला के एक समूह द्वारा किया जाता है जिसे सामान्यत: ‘कुल्हाकदार समूह’ कहते हैं।
- इस समूह में चौरपंचाशिका चित्रकला की शुद्ध स्वदेशी शैली (मेवाड़ से) है, जबकि ‘लाउरचंदा’ (मुल्ला दाउद की रचना) में फारसी और भारतीय शैलियों का मिश्रण है।
- इस युग की दो अन्य महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ ‘मृगावती’ और ‘महापुराण’ हैं जो कि एक जैन ग्रंथ हैं।
- इन लघु चित्रकलाओं की विशेषता चटकीले विषम वर्ण, प्रभावशाली और कोणीय आरेखन, पारदर्शी वस्त्रों का प्रयोग तथा ऐसी शंकुरूप टोपियों ‘कुलहा’ का प्रकट होना है जिन पर पुरुष आकृतियाँ पगड़ी पहनती हैं।
मुगलकालीन चित्रकला
- चित्रकला की मुगल शैली की शुरुआत सम्राट अकबर के शासनकाल में 1560 ई. में हुई।
- मुगल शैली का विकास चित्रकला की स्वदेशी भारतीय शैली और फारसी चित्रकला की सफाविद् शैली के उचित संश्लेषण से हुआ।
- प्रकृति के घनिष्ठ अवलोकन और उत्तम तथा कोमल आरेखन पर आधारित सुनम्य प्रकृतिवाद मुगल शैली की एक विशेषता है।
अकबरकालीन चित्रकला
- इस शैली में प्रयुक्त रंग चमकदार हैं।
- इसमें चेहरे के एक तरफ का हिस्सा ही चित्रित किया जाता था जिसमें आँखें मछली की तरह बनाई जाती थीं।
- चित्र अलंकारिक न होकर व्यक्तियों या शबीहों के तथा घटना प्रधान हैं।
- अकबरकालीन प्रमुख चित्र हैं- हमज़ानामा, अनवर-सुहावली, गुलिस्तां-ए-दीवान, आमिर शाही की दीवान, रज़्मनामा (महाभारत का फारसी अनुवाद), दराबनाम, अकबरनामा आदि।
- अकबरकालीन प्रसिद्ध चित्रकार हैं- दसवंत, मिसकिन, नन्हा, बसावन, मनोहर, दौलत, मंसूर, केसू, भीम गुजराती, धर्मदास, मधु, सूरदास, लाल, शंकर, गोवर्धन और इनायत।
बाबर के समकालीन प्रसिद्ध ईरानी चित्रकार बेहजाद था।
हुमायूँ के दरबार में दो प्रसिद्ध ईरानी चित्रकार थे- अब्दुस्समद और मीर सैयद अली।
जहाँगीरकालीन चित्रकला
- जहाँगीर के अधीन मुगल चित्रकला ने अधिकाधिक आकर्षण, परिष्कार एवं गरिमा प्राप्त की।
- चित्रकला में रूढ़ियों के स्थान पर वास्तविकता के दर्शन होते हैं; संभवत: ऐसा बढ़ते हुए यूरोपीय प्रभाव के कारण हुआ।
- इस काल में प्रकृति का अधिक सजीव और बारीक चित्रण किया गया है। पशु, पक्षी, पूलों, वनस्पतियों का बेहद सुंदर चित्रांकन किया गया है।
- एक छोटे आकार के चित्र (मिनेयेचर) बनाने की परंपरा की शुरुआत हुई।
- इस युग के विशिष्ट उदाहरण हैं- ‘अयार-ए- दानिश’ (पशुओं के किस्से-कहानी की पुस्तक) ‘गुलिस्तां’ (कुछ लघु चित्रकलाएँ,) ‘हाफिज़ का दीवान’ तथा ‘अनवर-ए-सुहावली’ आदि।
- वर्जिन मैरी को अपने हाथ में पकड़े जहाँगीर का लघु चित्र (मिनेयेचर) प्रमुख है।
- जहाँगीर के दरबार के प्रसिद्ध चित्रकार हैं- अकारिज़ा, आबुल हसन, मंसूर, बिशन दास, मनोहर, गोवर्धन, बालचंद, दौलत, मुखलिस, भीम और इनायत।
शाहजहाँकालीन चित्रकला
- शाहजहाँ के अधीन मुगल चित्रकला ने अपने अच्छे स्तर को बनाए रखा तथा यह परिपक्व भी हुई।
- इस काल के चित्रों के विषयों में यवन सुंदरियाँ, रंगमहल, विलासी जीवन और ईसाई धर्म शामिल हुए।
- इस काल में स्याह कलम चित्र बने जिसे कागज पर फिटकिरी और सरेस आदि के मिश्रण से तैयार किया जाता था।
- इनकी खासियत, बारीकियों का चित्रण था, जैसे- दाढ़ी का एक-एक बाल दिखना, रंगों को हल्की घुलन के साथ लगाना।
- शाहजहाँकालीन जाने-माने कलाकार हैं- विचित्र, चैतरमन, अनुप चत्तर, समरकंद का मोहम्मद नादिर, इनायत और मकर।
- औरंगज़ेब अति धर्मनिष्ठ व्यक्ति था, अत: इस दौर में मुगल चित्रकला में गिरावट आई और इसकी पूर्ववर्ती गुणवत्ता कहीं विलुप्त हो गई। राजदरबार के अधिकतम चित्रकार प्रांतीय राजदरबारों में चले गए।
दक्कनी क्षेत्रों में चित्रकारी
- दक्कन में चित्रकला के प्रारंभिक केन्द्र अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुंडा में थे।
- प्रारंभ में यहाँ चित्रकला का विकास मुगल शैली से स्वतंत्र रूप में हुआ, किंतु बाद में 17वीं-18वीं सदी में इस पर मुगल शैली का अधिकाधिक प्रभाव पड़ा।
अहमदनगर
- अहमदनगर चित्रकला के प्रारंभिक उदाहरण में ‘तारीप़-ए-हुसैनशाही’ का नाम लिया जाता है जो इंडो-इस्लामिक चित्रकारी का सुंदर उदाहरण है।
- अन्य उदाहरणों में ‘हिंडोला राग’, निजाम शाह द्वितीय (1591&96) के प्रतिरूप तथा 1605 ई. का मलिक अंबर का चित्र महत्त्वपूर्ण है जो राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में है।
बीजापुर
- बीजापुर में अली आदिल शाह (1558&80 ई.) और इब्राहिम द्वितीय (1580&1627) ने चित्रकला को संरक्षण प्रदान किया।
- ‘नजूम-अल-उलूम’ (विज्ञान के सितारे) नामक विश्वकोश को अली आदिल शाह प्रथम के शासनकाल में सचित्र किया गया।
- इब्राहिम द्वितीय एक संगीतकार थे और इसी विषय पर ‘नवरसनामा’ नामक एक पुस्तक भी लिखी, उनके कुछ प्रतिरूप अनेक संग्रहालयों में मौजूद हैं।
गोलकुंडा
- मोहम्मद कुली कुतुब शाह (1580&1611) के समय चित्रांकित पाँच आकर्षक चित्रकलाओं का एक समूह गोलकुंडा के लघु चित्रों में विशिष्ट है।
- गोलकुंडा चित्रकला के अन्य उत्कृष्ट उदाहरण हैं- ‘मैना पक्षी के साथ महिला’ (1605), सूफी कवि की सचित्र ‘पांडुलिपि’ और दो प्रतिकृतियाँ (मो.अली की)।
तंजावुर
- 18वीं सदी के अंत में सुदृढ़ आरेखन, छायाकरण की तकनीकों में अभिवृद्धि तथा चटकीले वर्णों का प्रयोग जैसी चित्रकला की विशेषताओं ने तंजावुर चित्रकला में उन्नति की।
- सचित्र काष्ठ फलक, जिस पर राम के राज्याभिषेक को दर्शाया गया है, तंजावुर चित्रकला की सजावटी और आलंकारिक शैली का उदाहरण है।
- यहाँ लघु चित्रकला में जो शंकुरूप मुकुट दिखाई देता है, वह तंजौर चित्रकला की प्रतीकात्मक विशेषता है।
मध्य भारत और राजस्थानी चित्रकला
- पंथ निरपेक्ष मुगल चित्रकला से भिन्न, मध्य भारत, राजस्थानी और पहाड़ी क्षेत्र आदि की चित्रकलाएँ धर्म आबद्ध, परंपरा संबद्ध तथा भारतीय साहित्य से प्रेरित रहीं।
- यहाँ चौरपंचाशिका शैली की परंपरा पहले से रही है जिसने यहाँ चित्रकला के विकास में सुदृढ़ आधार का काम किया।
- राजस्थानी चित्रकला में चित्र ‘वसली’ (दोहरा कागज) पर बनाए गए हैं।
- मुगल दरबार से आए विभिन्न चित्रकारों ने यहाँ की स्थानीय शैलियों को प्रभावित किया, जिससे यहाँ मेवाड़, किशनगढ़, कोटा-बूंदी, आमेर, बीकानेर आदि चित्रकला केन्द्र उभरे।
- राजस्थानी शैली के चित्रों के विषय में सर्वाधिक प्रधानता प्रेम संबंधी विषयों की है।
- राजस्थानी शैली में भक्ति (कृष्ण भक्ति) का अत्यधिक प्रभाव चित्रों पर दिखता है।
- इस शैली में चित्रकारों ने भारतीय संगीत के रागों और रागिनियों को ध्यान में रखकर रागमाला का भी सुंदर चित्रण किया है।
- राजस्थानी शैली पश्चिमी राजस्थान के इलाकों में अंकुरित हुई और वहीं से यह राजस्थान के बाकी इलाकों में पहुँची।
मालवा
- इसका उद्गम मांडू से माना जाता है।
- इस शैली में गहरे रंगों का प्रयोग हुआ है तथा नीले रंग का प्रयोग बढ़ गया है।
- यहाँ लहँगे पर झीनी साड़ी का अंकन है, बिल्कुल ओढ़नी की तरह।
- मालवा शैली के प्रमुख उदाहरण हैं- रसिक प्रिया की शृंखला (1634), ‘अमरूशतक’ (1652) तथा माधोदास द्वारा चित्रित की गई रागमाला की शृंखला (1680) आदि।
मेवाड़
- इस शैली के प्रमुख केन्द्र उदयपुर, नाथद्वारा और चावंड आदि हैं।
- इस शैली के चित्रकारों ने चमकदार लाल, पीले और केसरिया रंगों का बहुतायत से प्रयोग किया है।
- स्त्रियों की आकृतियाँ अपेक्षाकृत बौनी हैं। इनमें अलंकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
- मेवाड़ चित्रकला के प्रमुख उदाहरण हैं- मिसर्दी द्वारा चित्रित रागमाला की शृंखला (1605), साहिलदीन द्वारा चित्रित रागमाला की शृंखला (1628), अरण्य कांड का सचित्र उदाहरण (1651), रामायण की सातवीं पुस्तक (उत्तर कांड) का चित्रण आदि।
बूंदी-कोटा शैली
- इस शैली में मेवाड़ और मुगल शैली का प्रभाव देखने को मिलता है।
- यहाँ ‘बारहमासा’ चित्रों में बूंदी के लोकजीवन को दर्शाया गया है।
- पेड़ों के पीछे सुनहरा सूर्य, वर्षा वाले आकाश, सघन वनस्पति तथा भैरव रागिनी और रसिकप्रिया की शृंखला, बूंदी शैली के महत्त्वपूर्ण चित्रों में शुमार हैं।
- कोटा शैली में बाघ और भालू के आखेट तथा पर्वतीय जंगल का मनोहारी चित्रण है।
किशनगढ़ शैली
- राजा सावंत सिंह (1748–57 ई.) के संरक्षण में किशनगढ़ शैली का विकास हुआ। इन्हें नागरीदास भी कहा जाता था।
- इस शैली से राजा सावंत सिंह की प्रेमिका ‘बणी-ठणी’ तथा चित्रकार निहालचंद जुड़े थे।
- इस शैली में कुछ चित्रों को छोड़कर समस्त चित्र राधा-कृष्ण के बनाए गए हैं।
- नारी आकृतियों में लंबे चेहरे, ढलवाँ ललाट, तीखी नाक, उभारदार होंठ, भौंहों तक लंबी आँखें, लंबी गर्दन, पतली बाहें और कानों के पास झूलती हुई बालों की लट बनाई गई है।
- ‘बणी-ठणी’ को भारतीय मोनालिसा कहा गया है।
बीकानेर
- 1650 ई. में बीकानेर के राजा कर्ण सिंह ने मुगल कलाकार अली रजा (दिल्ली के उस्ताद) को नियोजित किया।
- बीकानेर के राज दरबार में अन्य कलाकार थे रूकनुद्दीन और उसका पुत्र शाहदीन।
- बीकानेर शैली मुगलों और दक्कनी शैलियों से काफी समानता रखती थी।
- मारवाड़-चित्रकला का प्रमुख उदाहरण है वीरजी द्वारा पाली में चित्रित रागमाला की एक शृंखला।
पहाड़ी शैली
- हिमालय की घाटी में, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और जम्मू के पहाड़ी इलाकों में विकसित हुई चित्रकला को पहाड़ी चित्रकला कहा जाता है।
- इस कला-शैली में बशोली, कांगड़ा-गढ़वाल और सिख चित्रकला की अलग-अलग शाखाओं का विकास हुआ।
बशोली शैली
- इस चित्रकला का केन्द्र जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले की बशोली तहसील में है।
- इसका प्रभाव चंबा, कुल्लू, मंडी, अरकी, नुरपू और मानकोट रियासत की कलाओं पर देखा गया है।
- इस शैली के विषयों में भागवत पुराण, गीत-गोविंद, रसमंजरी और वैष्णव धर्म रहे हैं।
- यहाँ के चित्रों में मुखाकृतियाँ एकदम मौलिक और स्थानीय लोककला से प्रेरित हैं।
- बशोली शैली के अंतर्गत राजा कृपाल सिंह के संरक्षण में ‘देवीदास’ नामक चित्रकार ने 1694 में रसमंजरी चित्रों के रूप में लघु चित्रकला का निष्पादन किया था।
- कलाकार मनकू द्वारा चित्रित गीत-गोविंद की एक शृंखला बशोली शैली के आगे के विकास को दर्शाती है।
गुलेर शैली
- बशोली शैली के बाद चित्रकलाओं के जम्मू-समूह का उद्भव हुआ।
- इसमें मूल रूप से गुलेर से संबंध रखने वाले और जसरोटा में बस जाने वाले एक कलाकार नैनसुख द्वारा जसरोटा के राजा बलवंत सिंह की प्रतिकृतियाँ शामिल हैं।
- इसमें प्रयुक्त वर्ण कोमल तथा शीतल हैं।
- यह मोहम्मद शाह के समय की मुगल चित्रकला की प्राकृतिक शैली से प्रभावित लगती है।
कांगड़ा चित्रकला
- कांगड़ा शैली का विकास 18वीं शताब्दी के चतुर्थांश में हुआ।
- इसमें गुलेर शैली के आरेखन की कोमलता और प्रकृतिवाद की गुणवत्ता निहित है।
- कांगड़ा राजा संसारचंद की प्रतिकृति की शैली के समान होने के कारण इसे कांगड़ा शैली कहा गया।
- इस शैली में स्त्री चित्रों में अद्भुत सजीवता आ गई।
- यह कांगड़ा, गुलेर, बशोली, चम्बा, जम्मू, नूरपुर, गढ़वाल आदि जगहों में प्रचलित रही।
- कांगड़ा शैली के कुछ पहाड़ी चित्रकारों को पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह से संरक्षण मिला।
- कांगड़ा शैली की चित्रकलाओं का श्रेय मुख्य रूप से नैनसुख-परिवार को जाता है।
कुल्लू-मण्डी
- यह कुल्लू-मण्डी क्षेत्र में चित्रकला की एक लोक-शैली है।
- इस शैली की विशेषता मज़बूत एवं प्रभावशाली आरेखन और गाढ़े तथा हल्के रंगों का प्रयोग करना है।
- इसमें भागवत की शृंखला, गोवर्धन को अंगुली पर उठाए कृष्ण, वर्षा का स्पष्ट रेखांकन आदि का लघु चित्र 1794 में श्री भगवान ने खींचा है।
- पतंग उड़ाती दो युवतियों का लघु चित्र भी कुल्लू-मण्डी शैली में विशिष्ट है।
लघु चित्रकारी की तकनीक
- मध्यकाल में चित्रकलाओं का स्वरूप लघु चित्रकारी ही था जिसको परंपरागत तकनीक से बनाया जाता था।
- पहले खाके को लाल या काले रंग से स्वतंत्र रूप से बनाया जाता था, फिर उस पर सफेद रंग लगाकर बार-बार चमकाया जाता था ताकि बहिर्रेखा स्पष्ट रूप से दिखाई पड़े।
- फिर नई कूची की सहायता से दूसरी बहिर्रेखा खींची जाती थी और पहले वाले खाके को बिल्कुल स्पष्ट और दृष्टिगोचर कर दिया जाता था।
- चित्रकलाओं में प्रयुक्त रंग खनिजों और गेरूए से लिये गए थे।
- ‘पेओरि’ गायों के मूत्र से निकाला गया पीला रंग था।
- बबूल गोंद और नीम गोंद का प्रयोग बंधनकारी माध्यम (चिपकाने) में होता था।
- पशु के बाल से कूची बनाई जाती थी जिसमें गिलहरी के बाल से बनी कूची सर्वश्रेष्ठ होती थी।
- चित्रकला सामग्री के रूप में ताड़ के पत्ते, कागज, काष्ठ और वस्त्र का प्रयोग होता था।
- चित्रकला के पश्चिमी वर्णों और तकनीक के प्रभाव के कारण भारतीय चित्रकला की परंपरागत शैलियाँ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंतत: समाप्त हो गई थीं।
आधुनिक काल में चित्रकला
- भारत की सत्ता की चाबी अंग्रेज़ों के हाथों में जाने के बाद पहले से ही कमज़ोर हो चली राजस्थानी, मुगल और पहाड़ी शैली की चित्रकला अपने मुहाने पर पहुँच गई।
- फिर भी देश के अलग-अलग क्षेत्रों में स्थानीय शैलियाँ यथा-कालीघाट (कलकत्ता) और ओडिशा के पटचित्र, नाथद्वारा (राजस्थान) के पट्टचित्र, तंजौर (तमिलनाडु) की चित्रकला व आंध्र प्रदेश की कलमकारी आदि का विकास हुआ।
- इनमें सर्वाधिक यश कमाया पटना की कंपनी शैली, मधुबनी पेंटिंग और आंध्र प्रदेश के कलमकारी शैली ने।
पटना की कंपनी शैली
- मुगल कला और यूरोपीय कला के सम्मिश्रण से पटना में बनाए गए चित्र को पटना या कंपनी शैली का कहा गया।
- इन चित्रों में छाया के माध्यम से वास्तविकता लाने का प्रयास किया गया है।
- प्रकृति का यथार्थवादी चित्रण है साथ ही, अलंकारिता का प्रयोग भी किया गया है।
- इसमें ब्रिटिश जल रंग पद्धति को अपनाया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ों ने खूब प्रोत्साहित किया।
मधुबनी पेंटिंग्स
- यह बिहार के मिथिलांचल इलाके मधुबनी, दरभंगा और नेपाल के कुछ इलाकों में प्रचलित शैली है।
- इसे प्रकाश में लाने का श्रेय डब्ल्यू जी आर्चर को है जिन्होंने 1934 में बिहार में भूकंप निरीक्षण के दौरान इस शैली को देखा था।
- इस शैली के विषय मुख्यत: धार्मिक हैं और प्राय: इनमें चटख रंगों का प्रयोग किया जाता है।
- मुखाकृतियों की आँखें काफी बड़ी बनाई जाती हैं और चित्र में खाली जगह भरने हेतु पूल-पत्तियाँ, चिह्न आदि बनाए जाते हैं।
- मधुबनी पेंटिंग्स की प्रसिद्ध महिला चित्रकार हैं- सीता देवी, गोदावरी दत्त, भारती दयाल, बुला देवी आदि।
कलमकारी चित्रकला
- दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश में प्रचलित हस्त निर्मित यह चित्रकला सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छापकर बनाई जाती है। इसमें सब्जियों के रंगों से धार्मिक चित्र बनाए जाते हैं।
- कलमकारी चित्र कहानी को कहते हैं। इनको बनाने वालों में अधिकतर महिलाएँ हैं। यह कला मुख्यतया भारत और ईरान में प्रचलित है।
- भारत में कलमकारी के मुख्यत: दो रूप विकसित हुए हैं-प्रथम मछलीपट्टनम कलमकारी एवं द्वितीय श्रीकला हस्ति कलमकारी (आंध्र प्रदेश)।
- इसमें सर्वप्रथम वस्त्र को रातभर गाय के गोबर के घोल में डुबोकर रखा जाता है। अगले दिन इसे धूप में सुखाकर दूध और माँड़ के घोल में डुबाया जाता है। बाद में अच्छी तरह सुखाकर इसे नरम करने के लिये लकड़ी के दस्ते से कूटा जाता है। इस पर चित्रकारी करने के लिये विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक पौधों, पत्तियों, पेड़ों की छाल, तनों आदि का प्रयोग किया जाता है।
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