Tuesday, April 30, 2019

भारतीय स्थापत्य

Ashok Pradhan     April 30, 2019     No comments

बुंदेलखंड का स्थापत्य

  • इसे खजुराहो उपशैली भी कहा जाता है।
  • यह उपशैली 10वीं से 13वीं शताब्दी के बीच रही जिसे चंदेल शासकों ने पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया।
  • यहाँ मंदिर निर्माण में पन्ना खदान के स्थानीय गुलाबी व मटमैले ग्रेनाइट एवं लाल बलुआ पत्थर का इस्तेमाल हुआ है।
  • खजुराहो उपशैली के मंदिरों में परकोटे का पूर्ण अभाव है यानी मंदिर चहारदीवारी में नहीं हैं।
  • ‘उरूश्रृंग’ व ‘अंतराल’ बुंदेलखंड स्थापत्य की अपनी विशेष पहचान है।
  • शिखर के ऊपर निकली हुई मीनारनुमा आकृति को ‘उरू शृंग’ कहते हैं तथा गर्भगृह और बरामदे के बीच के लंबे गलियारे को ‘अंतराल’ कहते हैं।
  • मंदिर की प्रतिमाओं में देवता एवं देवी, अप्सरा के अलावा संभोगरत प्रतिमाएँ तथा पशुओं की आकृतियाँ हैं।
  • खजुराहो के पश्चिमी समूह में लक्ष्मण, कंदरिया महादेव, मतंगेश्वर, लक्ष्मी, जगदम्बा, चित्रगुप्त, पार्वती तथा गणेश मंदिर और वराह व नंदी के मंडप शामिल हैं।
  • खजुराहो के पूर्वी समूहों के मंदिरों में ब्रह्मा, वामन, जवारी व हनुमान मंदिर और जैन मंदिरों में आदिनाथ, पार्श्वनाथ, आदिनाथ घंटाई मंदिर शामिल हैं।
  • खजुराहो के मंदिरों को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में स्थान प्राप्त है।
  • खजुराहो के समस्त मंदिरों में कला-तकनीक, निर्माण प्रक्रिया, भव्यता आदि की दृष्टि से कंदरिया महादेव मंदिर को सर्वोत्तम आँका गया है।

पालकालीन स्थापत्य

  • पालकालीन स्थापत्य के इस दौर में विक्रमशिला विहार, ओदंतपुरी विहार, जगदल्ला विहार आदि का निर्माण हुआ।
  • धर्मपाल द्वारा निर्मित सोमापुर महाविहार (बांग्लादेश) सबसे बड़ा बौद्ध विहार है जिसे यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया।
  • नालंदा महाविहार की स्थापना तो गुप्तकाल (कुमारगुप्त) में हुई, किंतु पाल शासकों ने भी इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
हीनयानी चैत्य-गृहमहायानी चैत्य-गृह
प्रारंभिक दौर में हीनयानी चैत्य बनाए गए थे।परवर्ती दौर में महायानी चैत्य बनाए गए थे।
इसका कालखंड प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से तृतीय शताब्दी तक है।इसका कालखंड प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से 5वीं शताब्दी ईस्वी सन् तक है।
इसमें चैत्य के निकट वाले विहार में रहने वाले लोग भी हीनयानी थे।इसमें चैत्य के निकट वाले विहार में रहने वाले लोग भी महायानी थे।
इसमें बुद्ध के प्रतीकों का ही चलन है। कहीं भी बुद्ध को मानव रूप में नहीं दर्शाया गया है।इसमें बुद्ध को मानव रूप में दर्शाया गया है।
हीनयानी चैत्यगृहों का क्रम है-भाजा, पीतलखोड़ा, कोण्डानी , अजंता-9 , अजंता-10 ,पांडवलेनी, विदिशा, कार्ले, कन्हेरी। कार्ले इसमें सर्वोत्तम चरम अवस्था है।महायानी चैत्यगृहों का क्रम है- भट्टीप्रोलू, गोली, जगैइपेट, घंटशाल, नागार्जुनकोंडा, अमरावती, अजंता-19, अजंता-26, एलोरा। इसमें चरम और सर्वोत्तम है- अमरावती चैत्य

गुजरात का स्थापत्य

  • गुजरात के स्थापत्य को सोलंकी उपशैली, चालुक्य उपशैली या मंडोवार उपशैली भी कहा जाता है।
  • इसके तहत हिन्दू मंदिरों के साथ-साथ जैन मंदिरों का भी निर्माण हुआ।
  • अर्द्ध-गोलाकार पीठ और ‘मंडोवार’ गुजरात उपशैली की पहचान विशेषता हैं।
  • वह अर्द्ध-गोलाकार संरचना जिसकी वजह से छत-शिखर अलग-अलग दिखता है, उसे मंडोवार कहते हैं।
  • माउंट आबू का आदिनाथ मंदिर, तेजपाल मंदिर, पालिताना के सैकड़ों मंदिर, सोमनाथ मंदिर, मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर आदि इस शैली के प्रमुख उदाहरण हैं।
  • माउंट आबू पर बने कई मंदिरों में संगमरमर के दो मंदिर हैं- दिलवाड़ा का जैन मंदिर तथा तेजपाल मंदिर (अर्बुदगिरी के बगल में)।
  • कुंभरिया के पार्श्वनाथ मंदिर में भी राजस्थान के मकरान से उपलब्ध काले और सपेद संगमरमर का इस्तेमाल किया गया है।
  • माउंट आबू के मंदिरों का निर्माण सोलंकी शासक भीम सिंह प्रथम के मंत्री दंडनायक विमल ने करवाया था, इसी कारण इसे विमलबसाही मंदिर भी कहते हैं।
  • सोमनाथ मंदिर को सोलंकी शासकों की देन न मानकर गुर्जर-प्रतिहारों की देन माना जाता है।

सैंधव वास्तुकला

  
        सैंधव कला उपयोगितामूलक थी। सिंधु सभ्यता की सबसे प्रभावशाली विशेषता उसकी नगर         निर्माण योजना एवं जल-मल निकास प्रणाली थी।
  • सिंधु सभ्यता की नगर योजना में दुर्ग योजना, स्नानागार, अन्नागार, गोदीवाड़ा, वाणिज्यिक परिसर आदि महत्त्वपूर्ण हैं।
  • हड़प्पा सभ्यता के समस्त नगर आयताकार खंड में विभाजित थे जहाँ सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। इसे ग्रिड प्लानिंग कहा जाता है।
  • हड़प्पा सभ्यता के नगरीय क्षेत्र के दो हिस्से थे- पश्चिमी टीला (Upper town) और पूर्वी टीला (Lower town)।
  • हड़प्पा काल में भवनों में पक्की और निश्चित आकार की ईंटों के प्रयोग के अलावा लकड़ी और पत्थर का भी प्रयोग होता था।
  • घर के बीचोंबीच बरामदा बनाया जाता था और मुख्य द्वार हमेशा घर के पीछे खुलता था।
  • घर के गंदे पानी की निकासी के लिये ढकी हुई नालियाँ बनाई गईं और इन्हें मुख्य नाले से जोड़कर गंदे पानी की निकासी की जाती थी।
  • जल-आपूर्ति व्यवस्था का साक्ष्य ‘धौलावीरा’ से मिला है जहाँ वर्षा जल को शुद्ध कर उसकी आपूर्ति की जाती थी।
  • हड़प्पा सभ्यता में दोमंजिला भवन हैं, सीढ़ियाँ हैं, पक्की-कच्ची ईंटों का इस्तेमाल है, किंतु गोलाकार स्तंभ और घर में खिड़की का चलन नहीं है।
  • हड़प्पा सभ्यता के नगरों में कहीं भी मंदिर का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला।
  • हड़प्पा से प्राप्त विशाल अन्नागार, मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार (39 × 23 × 8 फुट), अन्नागार व सभा भवन परिसर तथा लोथल (गुजरात) से प्राप्त व्यावसायिक क्षेत्र परिसर और विशालतम गोदीवाड़ा हड़प्पा सभ्यता की नगर निर्माण योजना के उत्कृष्ट नमूने हैं।
  • हड़प्पा सभ्यता (2750&1700 B.C.) में स्थापत्य/वास्तुकला ने जो उँचाई प्राप्त की थी वह वैदिक काल (1500&600 B.C.) तक आते-आते समाप्त हो चुकी थी। अत: वैदिक काल स्थापत्य कला की दृष्टि से ह्रास का काल है।
  • वैदिकोत्तर काल के दो महत्त्वपूर्ण अवशेष हैं- बिहार में राजगृह शहर की किलाबंदी (6-5वीं ईसा पूर्व) तथा प्राचीन कलिंगनगर की किलाबंद राजधानी शिशुपालगढ़ (ईसा पूर्व द्वितीय-प्रथम शताब्दी)।
  • अशोक के काल में संगतराशी और पत्थर पर नक्काशी फारस की देन थी।
  • मेगस्थनीज के अनुसार पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य का महल समकालीन ‘सूसा’ साम्राज्य के प्रासाद को भी मात करता है।
  • पाटलिपुत्र में एक विशाल इमारती लकड़ी की दीवार के अवशेष मिले हैं जिससे राजधानी को घेरा गया था।
  • सारनाथ का स्तंभ मौर्यकालीन कला का उत्कृष्ट नमूना है।
  • इन स्तंभों पर एक खास तरह की पॉलिश ‘ओप’ की गई थी जिससे इनकी चमक धातु जैसी हो गई। किंतु पॉलिश की यह कला समय के साथ लुप्त हो गई।

क्रम

आधार

पश्चिमी टीला (Upper town)

पूर्वी टीला (Lower Town)

1.दिशा
अपेक्षाकृत यह पश्चिम दिशा में स्थित था।
यह पूर्व दिशा में स्थित था।
2.
ऊँचाई
यह ज़्यादा ऊँचाई पर था।
यह कम ऊँचाई पर था।
3.दुर्गीकरण
यह पूर्णतया दुर्गीकृत क्षेत्र था।
यह दुर्गीकृत नहीं था।
4.जनसंख्या
यह कम आबादी वाला क्षेत्र था।
यह अधिक आबादी वाला क्षेत्र था।
5.इमारतें
यहाँ विशिष्ट इमारतें मौजूद थीं, जैसे- स्नानागार, अन्नगार आदि।
यहाँ साधारण इमारतें थीं, जैसे- एककक्षीय श्रमिक भवन आदि।

चालुक्यकालीन स्थापत्य

  • बादामी के चालुक्यों की कला की शुरुआत ऐहोल से है, जबकि चरमोत्कर्ष बादामी और पट्टदकल में दिखता है।
  • यह नागर और द्रविड़ शैली की विशेषताओं से युक्त बेसर शैली है।
  • यहाँ के मंदिरों में चट्टानों को काटकर संयुक्त कक्ष और विशेष ढाँचे वाले मंदिरों का निर्माण देखने को मिलता है।
  • ऐहोल में 70 से अधिक मंदिर हैं जिनमें रविकीर्ति द्वारा बनवाया गया मेगुती जैन मंदिर तथा लाड़ खाँ का सूर्य मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं।
  • बादामी के गुफा मंदिरों में खंभों वाला बरामदा, मेहराब युक्त कक्ष, छोटा गर्भगृह और उनकी गहराई प्रमुख है।
  • बादामी में मिली चार गुफाएँ शिव, विष्णु, विष्णु अवतार व जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ से संबंधित हैं।
  • बादामी के भूतनाथ, मल्लिकार्जुन और येल्लमा के मंदिरों के स्थापत्य को सराहना मिली है।
  • पट्टदकल के विरूपाक्ष मंदिर का स्थापत्य अति विशिष्ट है। इसके अलावा यहाँ के मंदिरों में संगमेश्वर, पापनाथ आदि हैं।
  • पट्टदकल के मंदिरों में चालुक्यकालीन स्थापत्य पूरे निखार पर है इसलिये इन्हें यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है।

राष्ट्रकूटकालीन स्थापत्य

  • राष्ट्रकूटकालीन स्थापत्य में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एलोरा नामक स्थल और मुंबई के निकट द्वीपीय स्थल एलीफैंटा की गुफाएँ महत्त्वपूर्ण हैं।
  • ‘रॉक कट आर्किटेक्चर’ का बेहतरीन उदाहरण हैं एलोरा की गुफाएँ। इन्हें विश्व विरासत की सूची में शामिल किया गया है।
  • इसमें कैलाश गुहा मंदिर (गुफा संख्या-16) की गणना विश्व स्तर की भव्यतम कलाकृतियों में की जाती है। इसकी तुलना एथेंस के प्रसिद्ध मंदिर ‘पार्थेनन’ से की गई है।
  • विश्व विरासत में शामिल एलीफैंटा की अधिकतर गुफाएँ हिन्दू (शिव) धर्म और शेष बौद्ध धर्म को समर्पित हैं जबकि एलोरा हिन्दू, बौद्ध व जैन तीनों को समर्पित रहा है।
  • एलीफैंटा में बनी त्रिमूर्ति विश्व प्रसिद्ध है, जो शिव के ही तीनों रूपों की है।
  • कोंकणी मौर्यों के समय इस द्वीप को धारापुरी कहा जाता था, बाद में हाथी की एक विशाल प्रतिमा मिलने के कारण पुर्तगालियों ने इसे एलीफैंटा कहा।

पल्लवकालीन स्थापत्य

  • पल्लव कला के विकास की शैलियों को क्रमश: महेंद्र शैली (610-640 ई.), मामल्ल शैली (640-674 ई.) और राजसिंह शैली (674-800 ई.) में देखा जा सकता है।
  • पल्लव राजा महेन्द्र वर्मन के समय वास्तुकला में ‘मंडप’ निर्माण प्रारंभ हुआ।
  • राजा नरसिंह वर्मन ने चिंगलपेट में समुद्र किनारे महाबलीपुरम उर्फ मामल्लपुरम नामक नगर की स्थापना की और ‘रथ’ निर्माण का शुभारंभ किया।
  • पल्लव काल में रथ या मंडप दोनों ही प्रस्तर काटकर बनाए जाते थे।
  • पल्लवकालीन आदि-वराह, महिषमर्दिनी, पंचपांडव, रामानुज आदि मंडप विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
  • ‘रथमंदिर’ मूर्तिकला का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिनमें द्रौपदी रथ, नकुल- सहदेव रथ, अर्जुन रथ, भीम रथ, गणेश रथ, पिंडारी रथ तथा वलैयंकुट्टै प्रमुख हैं।
  • इन आठ रथों में द्रौपदी रथ एकमंज़िला और छोटा है बाकी सातों रथों को सप्त पैगोडा कहा गया है।
  • पल्लव काल की अंतिम एवं महत्त्वपूर्ण ‘राजसिंह शैली’ में Rock cut Architecture के स्थान पर पत्थर, ईंट आदि से मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ।
  • राजसिंह शैली के उदाहरण महाबलीपुरम के तटीय मंदिर, अर्काट का पनमलाई मंदिर, कांची का कैलाशनाथ और बैकुंठ पेरूमल का मंदिर आदि हैं।
  • आगे पल्लव काल के नन्दीवर्मन/अपराजिता शैली में संरचनात्मक मंदिर निर्माण की शुरुआत हुई और दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र शैली उभरी जिसे द्रविड़ शैली कहा गया।

चोलकालीन स्थापत्य

  • चोल शासकों ने द्रविड़ शैली के अंतर्गत ईंटों की जगह पत्थरों और शिलाओं का प्रयोग कर ऐसे-ऐसे मंदिर बनाए, जिनका अनुकरण पड़ोसी राज्यों एवं देशों तक ने किया।
  • चोल इतिहास के प्रथम चरण (विजयालय से लेकर उत्तम चोल) में तिरुकट्टलाई का सुंदेश्वर मंदिर, कन्नूर का बालसुब्रह्मण्यम मंदिर, नरतमालै का विजयालय मंदिर, कुंभकोणम का नागेश्वर मंदिर तथा कदम्बर- मलाई मंदिर आदि का निर्माण हुआ।
  • महान चोलों (राजराज-से कुलोतुंग-III तक) के दौर में तंजावुर में वृहदेश्वर मंदिर तथा गंगईकोंड चोलपुरम का शिव मंदिर (राजेन्द्र प्रथम का) ख्याति प्राप्त हैं।
  • इन दोनों मंदिरों को देखकर कहा गया कि ‘‘उन्होंने दैत्यों के समान कल्पना की और जौहरियों के समान उसे पूरा किया।’’ (They concept like Giants and they Finished Like Jewellers).
  • इन दोनों के अलावा दारासुरम का ऐरावतेश्वर और त्रिभुवनम का कम्पहरेश्वर मंदिर भी सुंदर एवं भव्य हैं।
  • चोल स्थापत्य की सबसे बड़ी खासियत है कि उन्होंने वास्तुकला में मूर्तिकला और चित्रकला का भी बेजोड़ संगम किया।
  • चोलयुगीन मूर्तियों में नटराज की कांस्य प्रतिमा सर्वोत्कृष्ट है। इसे चोल कला का सांस्कृतिक निकष (कसौटी) कहा गया है।

ओडिशा का स्थापत्य

  • ओडिशा के मंदिर मुख्यत: भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क में स्थित हैं।
  • ओडिशा वास्तुकला की अपनी पहचान में देउल (गर्भगृह के ऊपर उठता हुआ विमान तल), जगमोहन (गर्भगृह के बगल का विशाल हॉल), नटमंडप (जगमोहन के बगल में नृत्य के लिये हॉल), भोगमंडप, परकोटा तथा ग्रेनाइट पत्थर का इस्तेमाल शामिल है।
  • भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर, पुरी का जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर इस शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
  • सूर्य मंदिर (कोणार्क) का निर्माण गंग वंश के शासक नरसिंह देव प्रथम ने किया था।
  • कोणार्क के सूर्य मंदिर को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में भी शामिल किया गया है।
  • कोणार्क के ब्लैक पैगोडा (सूर्य मंदिर) के अतिरिक्त उत्तराखंड के अल्मोड़ा में कटारमल सूर्य मंदिर है।
  • लिंगराज मंदिर ओडिशा मंदिर स्थापत्य की संपूर्ण विशेषताओं का सर्वोत्तम उदाहरण है।
विशेष
जैन धर्म से संबंधित गुफा/पहाड़ी
गुफा/पहाड़ी
शासक वंश
कालखंड
क्षेत्र
सोनभद्र पहाड़ी
नंद वंश
चौथी शताब्दी ई.पू.
राजगृह (बिहार)
उदयगिरि और खंडगिरि गुफा
महामेघवाहन वंश के राजा खारवेल ने यहाँ हाथीगुंफा लेख खुदवाया।
ई.पूर्व प्रथम या द्वितीय शताब्दी (मौर्योत्तर काल)
भुवनेश्वर (ओडिशा) से लगभग 8 किमी. दूर स्थित
चंद्रगिरि पहाड़ी
मौर्य वंश के चंद्रगुप्त मौर्य से संबंधित, इस पर्वत के निकट पूर्व मध्यकाल में गंग कदम्ब के मंत्री चामुण्ड राय ने विख्यात बाहुबली की मूर्ति स्थापित की।
मौर्य काल तथा पूर्व मध्य काल
श्रवण बेलगोला (कर्नाटक)
एलोरा की गुफाएँ
राष्ट्रकूट वंश के शासकों के समय में निर्मित एलोरा में कुल 34 गुफाएँ हैं। इनमें हिंदू, बौद्ध और जैन गुफा मंदिर बने हैं। यहाँ 12 बौद्ध गुफाएँ (1–12), 17 हिंदू गुफाएँ (13–29)और 5 जैन गुफाएँ (30–34) हैं। गुफा संख्या- 16 में कृष्ण प्रथम द्वारा एलोरा का प्रसिद्ध कैलाश मंदिर बनवाया गया।
पूर्व मध्य काल
(600–1000 ई.) 
औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से लगभग 30 किमी. की दूरी पर स्थित
शत्रुंजय और उर्जयंत पहाड़ी
चालुक्य या सोलंकी वंश के शासक जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल ने जैन मुनि हेमचंद्र के सहयोग से श्रमणों हेतु गुफाओं का निर्माण करवाया।
पूर्व मध्य काल (11वीं-12वीं शताब्दी)
गुजरात
अर्बुदगिरि की पहाड़ी
चालुक्य (सोलंकी) वंश के शासक भीम प्रथम के दौर में निर्मित। यहाँ गुफा के साथ-साथ आदिनाथ का मंदिर, विमल बसाही मंदिर तथा दिलवाड़ा समूह का जैन-मंदिर भी प्रसिद्ध है। यह क्षेत्र चालुक्यों के अधीन था।
पूर्व मध्य काल (10–11वीं शताब्दी)
राजस्थान

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