Tuesday, April 30, 2019

मंदिर वास्तुकला

Ashok Pradhan     April 30, 2019     1 comment
  • मंदिर निर्माण की प्रक्रिया का आरंभ तो मौर्य काल से ही शुरू हो गया था किंतु आगे चलकर उसमें सुधार हुआ और गुप्त काल को मंदिरों की विशेषताओं से लैस देखा जाता है।
  • संरचनात्मक मंदिरों के अलावा एक अन्य प्रकार के मंदिर थे जो चट्टानों को काटकर बनाए गए थे। इनमें प्रमुख है महाबलिपुरम का रथ-मंडप जो 5वीं शताब्दी का है।
  • गुप्तकालीन मंदिर आकार में बेहद छोटे हैं- एक वर्गाकार चबूतरा (ईंट का) है जिस पर चढ़ने के लिये सीढ़ी है तथा बीच में चौकोर कोठरी है जो गर्भगृह का काम करती है।
  • कोठरी की छत भी सपाट है व अलग से कोई प्रदक्षिणा पथ भी नहीं है।
  • इस प्रारंभिक दौर के निम्नलिखित मंदिर हैं जो कि भारत के प्राचीनतम संरचनात्मक मंदिर हैं: तिगवा का विष्णु मंदिर (जबलपुर, म.प्र.), भूमरा का शिव मंदिर (सतना, म.प्र.), नचना कुठार का पार्वती मंदिर (पन्ना, म.प्र.), देवगढ़ का दशावतार मंदिर (ललितपुर, यू.पी.), भीतरगाँव का मंदिर (कानपुर, यू.पी.) आदि।
  • मंदिर स्थापत्य संबंधी अन्य नाम, जैसे- पंचायतन, भूमि, विमान भद्ररथ, कर्णरथ और प्रतिरथ आदि भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं।
  • छठी शताब्दी ईस्वी तक उत्तर और दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला शैली लगभग एकसमान थी, लेकिन छठी शताब्दी ई. के बाद प्रत्येक क्षेत्र का भिन्न-भिन्न दिशाओं में विकास हुआ।
  • आगे ब्राह्मण हिन्दू धर्म के मंदिरों के निर्माण में तीन प्रकार की शैलियों नागर, द्रविड़ और बेसर शैली का प्रयोग किया गया।

    मंदिर स्थापत्य

    नागरद्रविड़बेसर
     पाल उपशैली पल्लव उपशैली राष्ट्रकूट
     ओडिशा उपशैली चोल उपशैली चालुक्य
     खजुराहो उपशैली पाण्डय उपशैली काकतीय
     सोलंकी उपशैली विजयनगर उपशैली होयसल
     नायक उपशैली
क्रम
मंदिर
स्थल
कालखंड
1.
गोलाकार ईंट व इमारती लकड़ी का मंदिर
बैराट ज़िला राजस्थान
तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व
2.
साँची का मंदिर- 40
साँची (मध्य प्रदेश)
तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व
3.
साँची का मंदिर-18
साँची (मध्य प्रदेश)
द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व
4.
प्राचीनतम संरचनात्मक मंदिर
ऐहोल (कर्नाटक)
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व
5.
साँची का मंदिर-17
साँची (मध्य प्रदेश)
चौथी सदी
6.
लड़खन मंदिर
ऐहोल (कर्नाटक)
पाँचवीं सदी ईस्वी सन्
7.
दुर्गा मंदिर
ऐहोल (कर्नाटक)
550 ईस्वी सन्
नागर शैली
  • ‘नागर’ शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इसे नागर शैली कहा जाता है।
  • यह संरचनात्मक मंदिर स्थापत्य की एक शैली है जो हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक के क्षेत्रों में प्रचलित थी।
  • इसे 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में मौजूद शासक वंशों ने पर्याप्त संरक्षण दिया।
  • नागर शैली की पहचान-विशेषताओं में समतल छत से उठती हुई शिखर की प्रधानता पाई जाती है। इसे अनुप्रस्थिका एवं उत्थापन समन्वय भी कहा जाता है।
  • नागर शैली के मंदिर आधार से शिखर तक चतुष्कोणीय होते हैं।
  • ये मंदिर उँचाई में आठ भागों में बाँटे गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- मूल (आधार), गर्भगृह मसरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग), जंघा (दीवार), कपोत (कार्निस), शिखर, गल (गर्दन), वर्तुलाकार आमलक और कुंभ (शूल सहित कलश)।
  • इस शैली में बने मंदिरों को ओडिशा में ‘कलिंग’, गुजरात में ‘लाट’ और हिमालयी क्षेत्र में ‘पर्वतीय’ कहा गया।
द्रविड़ शैली
  • कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं।
  • द्रविड़ शैली की शुरुआत 8वीं शताब्दी में हुई और सुदूर दक्षिण भारत में इसकी दीर्घजीविता 18वीं शताब्दी तक बनी रही।
  • द्रविड़ शैली की पहचान विशेषताओं में- प्राकार (चहारदीवारी), गोपुरम (प्रवेश द्वार), वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भगृह (रथ), पिरामिडनुमा शिखर, मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेन्द्रित प्रांगण तथा अष्टकोण मंदिर संरचना शामिल हैं।
  • द्रविड़ शैली के मंदिर बहुमंजिला होते हैं।
  • पल्लवों ने द्रविड़ शैली को जन्म दिया, चोल काल में इसने उँचाइयाँ हासिल की तथा विजयनगर काल के बाद से यह ह्रासमान हुई।
  • चोल काल में द्रविड़ शैली की वास्तुकला में मूर्तिकला और चित्रकला का संगम हो गया।
  • यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर (चोल शासक राजराज- द्वारा निर्मित) 1000 वर्षों से द्रविड़ शैली का जीता-जागता उदाहरण है।
  • द्रविड़ शैली के अंतर्गत ही आगे नायक शैली का विकास हुआ, जिसके उदाहरण हैं- मीनाक्षी मंदिर (मदुरै), रंगनाथ मंदिर (श्रीरंगम, तमिलनाडु), रामेश्वरम् मंदिर आदि।
बेसर शैली
  • नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को बेसर शैली कहते हैं।
  • इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा नदी तक पाए जाते हैं।
  • बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहते हैं।
  • बेसर शैली के मंदिरों का आकार आधार से शिखर तक गोलाकार (वृत्ताकार) या अर्द्ध गोलाकार होता है।
  • बेसर शैली का उदाहरण है- वृंदावन का वैष्णव मंदिर जिसमें गोपुरम बनाया गया है।
  • गुप्त काल के बाद देश में स्थापत्य को लेकर क्षेत्रीय शैलियों के विकास में एक नया मोड़ आता है।
  • इस काल में ओडिशा, गुजरात, राजस्थान एवं बुंदेलखंड का स्थापत्य ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है।
  • इन स्थानों में 8वीं से 13वीं सदी तक महत्त्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण हुआ।
  • इसी दौर में दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव, राष्ट्रकूटकालीन और चोलयुगीन स्थापत्य अपने वैशिष्ट्य के साथ सामने आया।

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भारतीय स्थापत्य

Ashok Pradhan     April 30, 2019     No comments

बुंदेलखंड का स्थापत्य

  • इसे खजुराहो उपशैली भी कहा जाता है।
  • यह उपशैली 10वीं से 13वीं शताब्दी के बीच रही जिसे चंदेल शासकों ने पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया।
  • यहाँ मंदिर निर्माण में पन्ना खदान के स्थानीय गुलाबी व मटमैले ग्रेनाइट एवं लाल बलुआ पत्थर का इस्तेमाल हुआ है।
  • खजुराहो उपशैली के मंदिरों में परकोटे का पूर्ण अभाव है यानी मंदिर चहारदीवारी में नहीं हैं।
  • ‘उरूश्रृंग’ व ‘अंतराल’ बुंदेलखंड स्थापत्य की अपनी विशेष पहचान है।
  • शिखर के ऊपर निकली हुई मीनारनुमा आकृति को ‘उरू शृंग’ कहते हैं तथा गर्भगृह और बरामदे के बीच के लंबे गलियारे को ‘अंतराल’ कहते हैं।
  • मंदिर की प्रतिमाओं में देवता एवं देवी, अप्सरा के अलावा संभोगरत प्रतिमाएँ तथा पशुओं की आकृतियाँ हैं।
  • खजुराहो के पश्चिमी समूह में लक्ष्मण, कंदरिया महादेव, मतंगेश्वर, लक्ष्मी, जगदम्बा, चित्रगुप्त, पार्वती तथा गणेश मंदिर और वराह व नंदी के मंडप शामिल हैं।
  • खजुराहो के पूर्वी समूहों के मंदिरों में ब्रह्मा, वामन, जवारी व हनुमान मंदिर और जैन मंदिरों में आदिनाथ, पार्श्वनाथ, आदिनाथ घंटाई मंदिर शामिल हैं।
  • खजुराहो के मंदिरों को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में स्थान प्राप्त है।
  • खजुराहो के समस्त मंदिरों में कला-तकनीक, निर्माण प्रक्रिया, भव्यता आदि की दृष्टि से कंदरिया महादेव मंदिर को सर्वोत्तम आँका गया है।

पालकालीन स्थापत्य

  • पालकालीन स्थापत्य के इस दौर में विक्रमशिला विहार, ओदंतपुरी विहार, जगदल्ला विहार आदि का निर्माण हुआ।
  • धर्मपाल द्वारा निर्मित सोमापुर महाविहार (बांग्लादेश) सबसे बड़ा बौद्ध विहार है जिसे यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया।
  • नालंदा महाविहार की स्थापना तो गुप्तकाल (कुमारगुप्त) में हुई, किंतु पाल शासकों ने भी इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
हीनयानी चैत्य-गृहमहायानी चैत्य-गृह
प्रारंभिक दौर में हीनयानी चैत्य बनाए गए थे।परवर्ती दौर में महायानी चैत्य बनाए गए थे।
इसका कालखंड प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से तृतीय शताब्दी तक है।इसका कालखंड प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से 5वीं शताब्दी ईस्वी सन् तक है।
इसमें चैत्य के निकट वाले विहार में रहने वाले लोग भी हीनयानी थे।इसमें चैत्य के निकट वाले विहार में रहने वाले लोग भी महायानी थे।
इसमें बुद्ध के प्रतीकों का ही चलन है। कहीं भी बुद्ध को मानव रूप में नहीं दर्शाया गया है।इसमें बुद्ध को मानव रूप में दर्शाया गया है।
हीनयानी चैत्यगृहों का क्रम है-भाजा, पीतलखोड़ा, कोण्डानी , अजंता-9 , अजंता-10 ,पांडवलेनी, विदिशा, कार्ले, कन्हेरी। कार्ले इसमें सर्वोत्तम चरम अवस्था है।महायानी चैत्यगृहों का क्रम है- भट्टीप्रोलू, गोली, जगैइपेट, घंटशाल, नागार्जुनकोंडा, अमरावती, अजंता-19, अजंता-26, एलोरा। इसमें चरम और सर्वोत्तम है- अमरावती चैत्य

गुजरात का स्थापत्य

  • गुजरात के स्थापत्य को सोलंकी उपशैली, चालुक्य उपशैली या मंडोवार उपशैली भी कहा जाता है।
  • इसके तहत हिन्दू मंदिरों के साथ-साथ जैन मंदिरों का भी निर्माण हुआ।
  • अर्द्ध-गोलाकार पीठ और ‘मंडोवार’ गुजरात उपशैली की पहचान विशेषता हैं।
  • वह अर्द्ध-गोलाकार संरचना जिसकी वजह से छत-शिखर अलग-अलग दिखता है, उसे मंडोवार कहते हैं।
  • माउंट आबू का आदिनाथ मंदिर, तेजपाल मंदिर, पालिताना के सैकड़ों मंदिर, सोमनाथ मंदिर, मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर आदि इस शैली के प्रमुख उदाहरण हैं।
  • माउंट आबू पर बने कई मंदिरों में संगमरमर के दो मंदिर हैं- दिलवाड़ा का जैन मंदिर तथा तेजपाल मंदिर (अर्बुदगिरी के बगल में)।
  • कुंभरिया के पार्श्वनाथ मंदिर में भी राजस्थान के मकरान से उपलब्ध काले और सपेद संगमरमर का इस्तेमाल किया गया है।
  • माउंट आबू के मंदिरों का निर्माण सोलंकी शासक भीम सिंह प्रथम के मंत्री दंडनायक विमल ने करवाया था, इसी कारण इसे विमलबसाही मंदिर भी कहते हैं।
  • सोमनाथ मंदिर को सोलंकी शासकों की देन न मानकर गुर्जर-प्रतिहारों की देन माना जाता है।

सैंधव वास्तुकला

  
        सैंधव कला उपयोगितामूलक थी। सिंधु सभ्यता की सबसे प्रभावशाली विशेषता उसकी नगर         निर्माण योजना एवं जल-मल निकास प्रणाली थी।
  • सिंधु सभ्यता की नगर योजना में दुर्ग योजना, स्नानागार, अन्नागार, गोदीवाड़ा, वाणिज्यिक परिसर आदि महत्त्वपूर्ण हैं।
  • हड़प्पा सभ्यता के समस्त नगर आयताकार खंड में विभाजित थे जहाँ सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। इसे ग्रिड प्लानिंग कहा जाता है।
  • हड़प्पा सभ्यता के नगरीय क्षेत्र के दो हिस्से थे- पश्चिमी टीला (Upper town) और पूर्वी टीला (Lower town)।
  • हड़प्पा काल में भवनों में पक्की और निश्चित आकार की ईंटों के प्रयोग के अलावा लकड़ी और पत्थर का भी प्रयोग होता था।
  • घर के बीचोंबीच बरामदा बनाया जाता था और मुख्य द्वार हमेशा घर के पीछे खुलता था।
  • घर के गंदे पानी की निकासी के लिये ढकी हुई नालियाँ बनाई गईं और इन्हें मुख्य नाले से जोड़कर गंदे पानी की निकासी की जाती थी।
  • जल-आपूर्ति व्यवस्था का साक्ष्य ‘धौलावीरा’ से मिला है जहाँ वर्षा जल को शुद्ध कर उसकी आपूर्ति की जाती थी।
  • हड़प्पा सभ्यता में दोमंजिला भवन हैं, सीढ़ियाँ हैं, पक्की-कच्ची ईंटों का इस्तेमाल है, किंतु गोलाकार स्तंभ और घर में खिड़की का चलन नहीं है।
  • हड़प्पा सभ्यता के नगरों में कहीं भी मंदिर का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला।
  • हड़प्पा से प्राप्त विशाल अन्नागार, मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार (39 × 23 × 8 फुट), अन्नागार व सभा भवन परिसर तथा लोथल (गुजरात) से प्राप्त व्यावसायिक क्षेत्र परिसर और विशालतम गोदीवाड़ा हड़प्पा सभ्यता की नगर निर्माण योजना के उत्कृष्ट नमूने हैं।
  • हड़प्पा सभ्यता (2750&1700 B.C.) में स्थापत्य/वास्तुकला ने जो उँचाई प्राप्त की थी वह वैदिक काल (1500&600 B.C.) तक आते-आते समाप्त हो चुकी थी। अत: वैदिक काल स्थापत्य कला की दृष्टि से ह्रास का काल है।
  • वैदिकोत्तर काल के दो महत्त्वपूर्ण अवशेष हैं- बिहार में राजगृह शहर की किलाबंदी (6-5वीं ईसा पूर्व) तथा प्राचीन कलिंगनगर की किलाबंद राजधानी शिशुपालगढ़ (ईसा पूर्व द्वितीय-प्रथम शताब्दी)।
  • अशोक के काल में संगतराशी और पत्थर पर नक्काशी फारस की देन थी।
  • मेगस्थनीज के अनुसार पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य का महल समकालीन ‘सूसा’ साम्राज्य के प्रासाद को भी मात करता है।
  • पाटलिपुत्र में एक विशाल इमारती लकड़ी की दीवार के अवशेष मिले हैं जिससे राजधानी को घेरा गया था।
  • सारनाथ का स्तंभ मौर्यकालीन कला का उत्कृष्ट नमूना है।
  • इन स्तंभों पर एक खास तरह की पॉलिश ‘ओप’ की गई थी जिससे इनकी चमक धातु जैसी हो गई। किंतु पॉलिश की यह कला समय के साथ लुप्त हो गई।

क्रम

आधार

पश्चिमी टीला (Upper town)

पूर्वी टीला (Lower Town)

1.दिशा
अपेक्षाकृत यह पश्चिम दिशा में स्थित था।
यह पूर्व दिशा में स्थित था।
2.
ऊँचाई
यह ज़्यादा ऊँचाई पर था।
यह कम ऊँचाई पर था।
3.दुर्गीकरण
यह पूर्णतया दुर्गीकृत क्षेत्र था।
यह दुर्गीकृत नहीं था।
4.जनसंख्या
यह कम आबादी वाला क्षेत्र था।
यह अधिक आबादी वाला क्षेत्र था।
5.इमारतें
यहाँ विशिष्ट इमारतें मौजूद थीं, जैसे- स्नानागार, अन्नगार आदि।
यहाँ साधारण इमारतें थीं, जैसे- एककक्षीय श्रमिक भवन आदि।

चालुक्यकालीन स्थापत्य

  • बादामी के चालुक्यों की कला की शुरुआत ऐहोल से है, जबकि चरमोत्कर्ष बादामी और पट्टदकल में दिखता है।
  • यह नागर और द्रविड़ शैली की विशेषताओं से युक्त बेसर शैली है।
  • यहाँ के मंदिरों में चट्टानों को काटकर संयुक्त कक्ष और विशेष ढाँचे वाले मंदिरों का निर्माण देखने को मिलता है।
  • ऐहोल में 70 से अधिक मंदिर हैं जिनमें रविकीर्ति द्वारा बनवाया गया मेगुती जैन मंदिर तथा लाड़ खाँ का सूर्य मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं।
  • बादामी के गुफा मंदिरों में खंभों वाला बरामदा, मेहराब युक्त कक्ष, छोटा गर्भगृह और उनकी गहराई प्रमुख है।
  • बादामी में मिली चार गुफाएँ शिव, विष्णु, विष्णु अवतार व जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ से संबंधित हैं।
  • बादामी के भूतनाथ, मल्लिकार्जुन और येल्लमा के मंदिरों के स्थापत्य को सराहना मिली है।
  • पट्टदकल के विरूपाक्ष मंदिर का स्थापत्य अति विशिष्ट है। इसके अलावा यहाँ के मंदिरों में संगमेश्वर, पापनाथ आदि हैं।
  • पट्टदकल के मंदिरों में चालुक्यकालीन स्थापत्य पूरे निखार पर है इसलिये इन्हें यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है।

राष्ट्रकूटकालीन स्थापत्य

  • राष्ट्रकूटकालीन स्थापत्य में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एलोरा नामक स्थल और मुंबई के निकट द्वीपीय स्थल एलीफैंटा की गुफाएँ महत्त्वपूर्ण हैं।
  • ‘रॉक कट आर्किटेक्चर’ का बेहतरीन उदाहरण हैं एलोरा की गुफाएँ। इन्हें विश्व विरासत की सूची में शामिल किया गया है।
  • इसमें कैलाश गुहा मंदिर (गुफा संख्या-16) की गणना विश्व स्तर की भव्यतम कलाकृतियों में की जाती है। इसकी तुलना एथेंस के प्रसिद्ध मंदिर ‘पार्थेनन’ से की गई है।
  • विश्व विरासत में शामिल एलीफैंटा की अधिकतर गुफाएँ हिन्दू (शिव) धर्म और शेष बौद्ध धर्म को समर्पित हैं जबकि एलोरा हिन्दू, बौद्ध व जैन तीनों को समर्पित रहा है।
  • एलीफैंटा में बनी त्रिमूर्ति विश्व प्रसिद्ध है, जो शिव के ही तीनों रूपों की है।
  • कोंकणी मौर्यों के समय इस द्वीप को धारापुरी कहा जाता था, बाद में हाथी की एक विशाल प्रतिमा मिलने के कारण पुर्तगालियों ने इसे एलीफैंटा कहा।

पल्लवकालीन स्थापत्य

  • पल्लव कला के विकास की शैलियों को क्रमश: महेंद्र शैली (610-640 ई.), मामल्ल शैली (640-674 ई.) और राजसिंह शैली (674-800 ई.) में देखा जा सकता है।
  • पल्लव राजा महेन्द्र वर्मन के समय वास्तुकला में ‘मंडप’ निर्माण प्रारंभ हुआ।
  • राजा नरसिंह वर्मन ने चिंगलपेट में समुद्र किनारे महाबलीपुरम उर्फ मामल्लपुरम नामक नगर की स्थापना की और ‘रथ’ निर्माण का शुभारंभ किया।
  • पल्लव काल में रथ या मंडप दोनों ही प्रस्तर काटकर बनाए जाते थे।
  • पल्लवकालीन आदि-वराह, महिषमर्दिनी, पंचपांडव, रामानुज आदि मंडप विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
  • ‘रथमंदिर’ मूर्तिकला का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिनमें द्रौपदी रथ, नकुल- सहदेव रथ, अर्जुन रथ, भीम रथ, गणेश रथ, पिंडारी रथ तथा वलैयंकुट्टै प्रमुख हैं।
  • इन आठ रथों में द्रौपदी रथ एकमंज़िला और छोटा है बाकी सातों रथों को सप्त पैगोडा कहा गया है।
  • पल्लव काल की अंतिम एवं महत्त्वपूर्ण ‘राजसिंह शैली’ में Rock cut Architecture के स्थान पर पत्थर, ईंट आदि से मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ।
  • राजसिंह शैली के उदाहरण महाबलीपुरम के तटीय मंदिर, अर्काट का पनमलाई मंदिर, कांची का कैलाशनाथ और बैकुंठ पेरूमल का मंदिर आदि हैं।
  • आगे पल्लव काल के नन्दीवर्मन/अपराजिता शैली में संरचनात्मक मंदिर निर्माण की शुरुआत हुई और दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र शैली उभरी जिसे द्रविड़ शैली कहा गया।

चोलकालीन स्थापत्य

  • चोल शासकों ने द्रविड़ शैली के अंतर्गत ईंटों की जगह पत्थरों और शिलाओं का प्रयोग कर ऐसे-ऐसे मंदिर बनाए, जिनका अनुकरण पड़ोसी राज्यों एवं देशों तक ने किया।
  • चोल इतिहास के प्रथम चरण (विजयालय से लेकर उत्तम चोल) में तिरुकट्टलाई का सुंदेश्वर मंदिर, कन्नूर का बालसुब्रह्मण्यम मंदिर, नरतमालै का विजयालय मंदिर, कुंभकोणम का नागेश्वर मंदिर तथा कदम्बर- मलाई मंदिर आदि का निर्माण हुआ।
  • महान चोलों (राजराज-से कुलोतुंग-III तक) के दौर में तंजावुर में वृहदेश्वर मंदिर तथा गंगईकोंड चोलपुरम का शिव मंदिर (राजेन्द्र प्रथम का) ख्याति प्राप्त हैं।
  • इन दोनों मंदिरों को देखकर कहा गया कि ‘‘उन्होंने दैत्यों के समान कल्पना की और जौहरियों के समान उसे पूरा किया।’’ (They concept like Giants and they Finished Like Jewellers).
  • इन दोनों के अलावा दारासुरम का ऐरावतेश्वर और त्रिभुवनम का कम्पहरेश्वर मंदिर भी सुंदर एवं भव्य हैं।
  • चोल स्थापत्य की सबसे बड़ी खासियत है कि उन्होंने वास्तुकला में मूर्तिकला और चित्रकला का भी बेजोड़ संगम किया।
  • चोलयुगीन मूर्तियों में नटराज की कांस्य प्रतिमा सर्वोत्कृष्ट है। इसे चोल कला का सांस्कृतिक निकष (कसौटी) कहा गया है।

ओडिशा का स्थापत्य

  • ओडिशा के मंदिर मुख्यत: भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क में स्थित हैं।
  • ओडिशा वास्तुकला की अपनी पहचान में देउल (गर्भगृह के ऊपर उठता हुआ विमान तल), जगमोहन (गर्भगृह के बगल का विशाल हॉल), नटमंडप (जगमोहन के बगल में नृत्य के लिये हॉल), भोगमंडप, परकोटा तथा ग्रेनाइट पत्थर का इस्तेमाल शामिल है।
  • भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर, पुरी का जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर इस शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
  • सूर्य मंदिर (कोणार्क) का निर्माण गंग वंश के शासक नरसिंह देव प्रथम ने किया था।
  • कोणार्क के सूर्य मंदिर को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में भी शामिल किया गया है।
  • कोणार्क के ब्लैक पैगोडा (सूर्य मंदिर) के अतिरिक्त उत्तराखंड के अल्मोड़ा में कटारमल सूर्य मंदिर है।
  • लिंगराज मंदिर ओडिशा मंदिर स्थापत्य की संपूर्ण विशेषताओं का सर्वोत्तम उदाहरण है।
विशेष
जैन धर्म से संबंधित गुफा/पहाड़ी
गुफा/पहाड़ी
शासक वंश
कालखंड
क्षेत्र
सोनभद्र पहाड़ी
नंद वंश
चौथी शताब्दी ई.पू.
राजगृह (बिहार)
उदयगिरि और खंडगिरि गुफा
महामेघवाहन वंश के राजा खारवेल ने यहाँ हाथीगुंफा लेख खुदवाया।
ई.पूर्व प्रथम या द्वितीय शताब्दी (मौर्योत्तर काल)
भुवनेश्वर (ओडिशा) से लगभग 8 किमी. दूर स्थित
चंद्रगिरि पहाड़ी
मौर्य वंश के चंद्रगुप्त मौर्य से संबंधित, इस पर्वत के निकट पूर्व मध्यकाल में गंग कदम्ब के मंत्री चामुण्ड राय ने विख्यात बाहुबली की मूर्ति स्थापित की।
मौर्य काल तथा पूर्व मध्य काल
श्रवण बेलगोला (कर्नाटक)
एलोरा की गुफाएँ
राष्ट्रकूट वंश के शासकों के समय में निर्मित एलोरा में कुल 34 गुफाएँ हैं। इनमें हिंदू, बौद्ध और जैन गुफा मंदिर बने हैं। यहाँ 12 बौद्ध गुफाएँ (1–12), 17 हिंदू गुफाएँ (13–29)और 5 जैन गुफाएँ (30–34) हैं। गुफा संख्या- 16 में कृष्ण प्रथम द्वारा एलोरा का प्रसिद्ध कैलाश मंदिर बनवाया गया।
पूर्व मध्य काल
(600–1000 ई.) 
औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से लगभग 30 किमी. की दूरी पर स्थित
शत्रुंजय और उर्जयंत पहाड़ी
चालुक्य या सोलंकी वंश के शासक जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल ने जैन मुनि हेमचंद्र के सहयोग से श्रमणों हेतु गुफाओं का निर्माण करवाया।
पूर्व मध्य काल (11वीं-12वीं शताब्दी)
गुजरात
अर्बुदगिरि की पहाड़ी
चालुक्य (सोलंकी) वंश के शासक भीम प्रथम के दौर में निर्मित। यहाँ गुफा के साथ-साथ आदिनाथ का मंदिर, विमल बसाही मंदिर तथा दिलवाड़ा समूह का जैन-मंदिर भी प्रसिद्ध है। यह क्षेत्र चालुक्यों के अधीन था।
पूर्व मध्य काल (10–11वीं शताब्दी)
राजस्थान

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भारतीय मूर्तिकला

Ashok Pradhan     April 30, 2019     No comments
  • प्राचीन विश्व में कला के क्षेत्र में भारत का प्रतिष्ठित स्थान है। जहाँ एक ओर यवन मानव शरीर की दैहिक सुंदरता, मिस्र के लोग अपने पिरामिड की भव्यता और चीनी लोग प्रकृति की सुंदरता को दर्शाने में सर्वोपरि थे, वहीं भारतीय अपने अध्यात्म को मूर्तियों में ढालने का प्रयास करने में अद्वितीय थे; वह अध्यात्म जिसमें लोगों के उच्च आदर्श और मान्यताएँ निहित थीं।
  • पाषाण काल में भी मनुष्य अपने पाषाण उपकरणों को कुशलतापूर्वक काट-छाँटकर या दबाव तकनीक द्वारा आकार देता था, परंतु भारत में मूर्तिकला अपने वास्तविक रूप में हड़प्पा सभ्यता के दौरान ही अस्तित्व में आई।

हड़प्पाकालीन मूर्तिकला

  • हड़प्पा सभ्यता में मृणमूर्तियों (मिट्टी की मूर्ति), प्रस्तर मूर्ति तथा धातु मूर्ति तीनों गढ़ी जाती थीं।
  • मिट्टी की मूर्तियाँ लाल मिट्टी एवं क्वार्ट्ज नामक प्रस्तर के चूर्ण से बनाई गई कांचली मिट्टी से बनाई जाती थीं।
  • धातु मूर्तियों के निर्माण के लिये हड़प्पा सभ्यता में मुख्यत: तांबा व काँसा का प्रयोग किया जाता था।
  • सेलखड़ी पत्थर से बनी मोहनजोदड़ो की योगी मूर्ति (अधखुले नेत्र, नाक के अग्रभाग पर टिकी दृष्टि, छोटा मस्तक व सँवरी हुई दाढ़ी) इसकी कलात्मकता का प्रमाण है।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक नर्तकी की धातु मूर्ति (काँसा) भी मूर्तिकला का बेजोड़ नमूना है।
  • हड़प्पाकालीन दायमाबाद (महाराष्ट्र) से प्राप्त बैलगाड़ी को चलाते हुए गाड़ीवान की मूर्ति भी मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • मृणमूर्तियों में हड़प्पा काल में मुख्यत: सीटियाँ, झुनझुने, खिलौने और वृषभ आदि बनाए गए।

मौर्यकालीन मूर्तिकला

  • चमकदार पॉलिश (ओप), मूर्तियों की भावाभिव्यक्ति, एकाश्म पत्थर द्वारा निर्मित पाषाण स्तंभ एवं उनके कलात्मक शिखर (शीर्ष) मौर्यकालीन मूर्तिकला की विशेषताएँ हैं।
  • मौर्यकाल में जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें पत्थर व मिट्टी की मूर्ति तो मिली है, किंतु धातु की कोई मूर्ति नहीं मिली है।
  • मौर्यकाल में मूर्तियों का निर्माण चिपकवा विधि (अंगुलियों या चुटकियों का इस्तेमाल करके) या साँचे में ढालकर किया जाता था।
  • मौर्यकालीन मृणमूर्तियों के विषय हैं- पशु-पक्षी, खिलौना और मानव। अर्थात् ये मृणमूर्तियाँ गैर-धार्मिक उद्देश्य वाली मृणमूर्तियाँ हैं।
  • प्रस्तर मूर्तियाँ अधिकांशत: शासकों द्वारा बनवाई गई हैं, फिर भी किसी देवता को अभी प्रस्तर मूर्ति में नहीं ढाला गया है। यानी उद्देश्य सेक्युलर ही है।
  • मौर्यकाल में प्रस्तर मूर्ति निर्माण में चुनार के बलुआ पत्थर और पारखम जगह से प्राप्त मूर्ति में चित्तीदार लाल पत्थर का इस्तेमाल हुआ है।
  • मौर्यकाल की मूर्तियाँ अनेक स्थानों, यथा- पाटलिपुत्र, वैशाली, तक्षशिला, मथुरा, कौशाम्बी, अहिच्छत्र, सारनाथ आदि से प्राप्त हुई हैं।
  • कला, सौंदर्य एवं चमकदार पॉलिश की दृष्टि से सम्राट अशोक के कालखण्ड की मूर्तिकारी को सर्वोत्तम माना गया है।
  • पारखम (U.P.) से प्राप्त 7.5 फीट ऊँची पुरुष मूर्ति, दिगंबर प्रतिमा (लोहानीपुर पटना) तथा दीदारगंज (पटना) से प्राप्त यक्षिणी मूर्ति मौर्य कला के विशिष्ट उदाहरण हैं।
  • सारनाथ स्तंभ के शीर्ष पर बने चार सिंहों की आकृतियाँ तथा इसके नीचे की चित्र-वल्लरी अशोककालीन मूर्तिकला का बेहतरीन नमूना है, जो आज हमारा राष्ट्रीय चिह्न है।
  • कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्यकालीन मूर्तिकला पर ईरान एवं यूनान की कला का प्रभाव था।

शुंग/कुषाणकालीन मूर्तिकला

  • प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से इस दौर में मूर्तियों के साथ-साथ प्रतिमाओं का भी प्रादुर्भाव हुआ तथा नवीन मूर्तिकला शैली का भी आगमन हुआ।
  • प्रतीकात्मकता इस काल की मूर्तिकला की प्रधान विशेषता है।
  • इसी दौर में गांधार शैली और मथुरा शैली का विकास हुआ।

गांधार शैली

  • यह विशुद्ध रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित धार्मिक प्रस्तर मूर्तिकला शैली है।
  • इसका उदय कनिष्क प्रथम (पहली शताब्दी) के समय में हुआ तथा तक्षशिला, कपिशा, पुष्कलावती, बामियान-बेग्राम आदि इसके प्रमुख केन्द्र रहे।
  • गांधार शैली में स्वात घाटी (अफगानिस्तान) के भूरे रंग के पत्थर या काले स्लेटी पत्थर का इस्तेमाल होता था।
  • गांधार शैली के अंतर्गत बुद्ध की मूर्तियाँ या प्रतिमा आसन (बैठे हुए) या स्थानक (खड़े हुए) दोनों मुद्राओं में मिलती हैं।
  • गांधार मूर्तिकला शैली के अंतर्गत भगवान बुद्ध प्राय: वस्त्रयुक्त, घुँघराले बाल व मूँछ सहित, ललाट पर ऊर्णा (भौंरी), सिर के पीछे प्रभामंडल तथा वस्त्र सलवट या चप्पलयुक्त विशेषताओं से परिपूर्ण हैं।
  • गांधार कला शैली में बुद्ध-मूर्ति की जो भव्यता है उससे भारतीय कला पर यूनानी एवं हेलेनिस्टिक प्रभाव पड़ने की बात स्पष्ट होती है।

मथुरा शैली

  • इसका संबंध बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण-हिन्दू धर्म, तीनों से है।
  • मथुरा कला शैली की दीर्घजीविता प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से चतुर्थ शताब्दी ईस्वी सन् तक रही है।
  • मथुरा कला के मुख्य केन्द्र- मथुरा, तक्षशिला, अहिच्छत्र, श्रावस्ती, वाराणसी, कौशाम्बी आदि हैं।
  • मथुरा शैली में सीकरी रूपबल (मध्यकालीन फतेहपुर सीकरी) के लाल चित्तीदार पत्थर या श्वेत चित्तीदार पत्थर का इस्तेमाल होता था।
  • मथुरा मूर्तिकला शैली में भी बुद्ध आसन (बैठे हुए) और स्थानक (खड़े हुए) दोनों स्थितियों में प्रदर्शित किये गए हैं।
  • मथुरा शैली में बुद्ध प्राय: वस्त्ररहित, बालविहीन, मूँछविहीन, अलंकरणविहीन किंतु पीछे प्रभामंडल युक्त प्रदर्शित किये गए हैं।
  • मथुरा कला में बुद्ध समस्त प्रसिद्ध मुद्राओं में प्रदर्शित किये गए हैं, यथा- वरदहस्त मुद्रा, अभय मुद्रा, धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में।
 गांधार, मथुरा व अमरावती कला शैलियों की तुलना
आधारगांधार शैलीमथुरा शैलीअमरावती शैली
कालखंडमौर्योत्तर कालमौर्योत्तर कालमौर्योत्तर काल
संरक्षणकुषाण शासकों काकुषाण शासकों कासातवाहन राजाओं का
प्रभाव विस्तारउत्तर-पश्चिम सीमांत, आधुनिक कंधार क्षेत्रमथुरा, सोंख, कंकाली टीला और आसपास के क्षेत्रों में।कृष्णा-गोदावरी की निचली घाटी में, अमरावती और नागार्जुनकोंडा में और उसके आसापास के क्षेत्रों में।
बाह्य प्रभावयूनानी या हेलेनिस्टिक मूर्तिकला का व्यापक प्रभावयह शैली स्वदेशी प्रभाव लिये हुए है, यहाँ बाह्य प्रभाव नदारद है।यह शैली भी स्वदेशी रूप से विकसित हुई।
धार्मिक संबद्धताग्रीको-रोमन देवताओं के मंदिरों से प्रभावित मुख्य रूप से बौद्ध चित्रकलाउस समय के तीनों धर्मों, यानी हिंदू, जैन और बौद्ध का प्रभावमुख्य रूप से बौद्ध धर्म का प्रभाव
प्रयुक्त सामग्रीप्रारंभिक गांधार शैली में नीले-धूसर बलुआ प्रस्तर का उपयोग, जबकि बाद की अवधि में मिट्टी और प्लास्टर के उपयोग का साक्षी बना।चित्तीदार लाल बलुआ पत्थर का उपयोगसफ़ेद संगमरमर का इस्तेमाल
बुद्ध मूर्ति की विशेषताएँलहराते घुंघराले बाल, आध्यात्मिक या योगी मुद्रा, आभूषण रहित, जटायुक्त, आधी बंद-आधी खुली आँखें।प्रसन्नचित्त चेहरा, तंग कपड़ा, हृष्ट-पुष्ट शरीर, बालमुंडित सर, पद्मासन मुद्रा और सिर के पीछे प्रभामंडलमूर्तियाँ सामान्यत: बुद्ध के जीवन और जातक कलाओं की कहानियों को दर्शाती हैं।

आयाग-पट्ट

  • मथुरा शैली के अंतर्गत जैन धर्म से संबंधित मूर्तियों को एक चौकोर प्रस्तर पट्टिका पर बनाया गया है जिसे आयाग-पट्ट कहते हैं।
  • कंकाली टीला (मथुरा) के उत्खनन से सैकड़ों आयाग-पट्ट मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें तीर्थंकरों का चित्रण है।
  • समस्त तीर्थंकर प्रतिमाएँ अजानबाहु हैं, इसमें उनकी खुली छाती, उस छाती पर एक त्रिभुज और उस त्रिभुज में कमल का पूल अंकित है जिसे ‘श्रीवत्स चिह्न’ कहते हैं।
  • ब्राह्मण-हिन्दू धर्म से संबंधित सूर्य प्रतिमा, चतुर्भुज विष्णु प्रतिमा, संकर्षण मूर्ति, मोरालेख आदि की प्राप्ति कचहरी मैदान मथुरा के उत्खनन से हुई है।

अमरावती (धान्यकटक) मूर्तिकला
  • इस शैली का विकास अमरावती में होने के कारण इसे अमरावती शैली कहा गया।
  • अमरावती दक्षिण भारत में कृष्णा नदी के निचले हिस्से में गुण्टूर ज़िले (आंध्र प्रदेश) के पास स्थित है।
  • सातवाहन काल (द्वितीय शताब्दी) में इस शैली का आगमन हुआ।
  • इस शैली में धार्मिक विषयवस्तु पर मूर्तियों का निर्माण हुआ है तथा प्रस्तर मूर्तियाँ ज़्यादा बनाई गई हैं।
  • यहीं एक अन्य मूर्ति में बुद्ध के दुष्ट चचेरे भाई देवदत्त द्वारा उन पर छोड़े गए पागल हाथी नीलगिरी को शांत करने का दृश्य उत्कीर्ण है।
  • दूसरी शताब्दी ई. में अमरावती से प्राप्त एक प्रसिद्ध उत्कीर्णन में चार स्त्रियों को बुद्ध के चरणों को पूजते हुए दिखाया गया है।
  • अमरावती की परिष्कृत शैली का एक अन्य उदाहरण सुंदर अर्गला जंगल में देखने को मिलता है। इसमें उत्कीर्ण दृश्य में राजकुमार राहुल को अपने पिता बुद्ध के सामने प्रस्तुत होते दिखाया गया है जब वे अपने पूर्व महल में अपने परिवार से मिलने पहुँचे।
  • इस शैली में जहाँ सजीवता एवं भक्ति भाव का दर्शन होता है, वहीं कुछ मूर्तियों में काम विषयक अभिव्यक्ति भी देखने को मिलती है।
  • अमरावती से प्राप्त स्तूप प्राचीनतम और काफी प्रसिद्ध है।
गुप्तकालीन मूर्तिकला
  • गुप्त मूर्तिकला में तीनों धर्मों (बौद्ध, जैन, ब्राह्मण-हिन्दू धर्म) के अलावा गैर-धार्मिक विषयों की भी मूर्तियाँ बनाई गई हैं।
  • सारनाथ, मथुरा और पाटलिपुत्र गुप्तकालीन मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे।
  • गुप्तकालीन मूर्तियों की निर्मलता, अंग सौंदर्य, वास्तविक हाव-भाव एवं जीवंतता ने कला को ऊँचाई प्रदान की।
  • सारनाथ से प्राप्त धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा सुल्तानगंज (बिहार) से प्राप्त 7.5 फीट ऊँची, 12 टन वज़नी बुद्ध की ताम्रमूर्ति अतिविशिष्ट हैं।
  • गुप्तकाल में जैन धर्म पर हिन्दू प्रभाव बढ़ रहा था, इसलिये तीर्थंकर के बगल में इन्द्र, सूर्य, कुबेर आदि की मूर्तियाँ बनने लगीं।
  • गुप्तकालीन जैन धर्म के अंतर्गत विशालकाय बाहुबली की मूर्तियाँ बननी शुरू हो गईं।
  • गुप्तकाल में दशावतार की मान्यता आई। अत: इस दौर में सर्वाधिक मूर्तियाँ ब्राह्मण-हिन्दू धर्म से संबंधित ही बनीं।
  • एलोरा (दशावतार मूर्तियाँ), खजुराहो, देवगढ़, आदि जगहों पर विष्णु के 10 अवतारों को मूर्त रूप दिया गया है। इनमें देवगढ़ की शेषसायी विष्णु मूर्ति प्रसिद्ध है।
  • ढाका से प्राप्त मत्स्यावतार और कच्छपावतार मूर्ति, उदयगिरि की गुफा से प्राप्त मूर्ति, भूमरा (राजस्थान) से प्राप्त नर-नारायण और कृष्ण की रास-लीला मूर्ति, भिलसा के मंदिर से प्राप्त वाराह अवतार की मूर्ति तथा एलिपेंटा से प्राप्त विख्यात त्रिमूर्ति गुप्तकालीन मूर्तिकला की विशिष्टता के प्रमाण हैं।
  • भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध मूर्ति (सारनाथ), 11 मानुषी बुद्ध मूर्ति (एलोरा) तथा बुद्ध के प्रथम उपदेश का चित्रण भी गुप्तकालीन मूर्तिकला के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं।
  • हिन्दुकुश पर्वत शृंखला की बामियान घाटी (अफगानिस्तान) में ‘सिल्क रूट’ पर पहाड़ को काटकर बुद्ध की दो भव्य प्रतिमाएँ 6वीं-7वीं सदी में बनाई गईं जो गांधार कला का शीर्षस्थ नमूना था। इसे कट्टरपंथी तालिबान शासन ने मार्च 2001 में ध्वस्त कर दिया।
चालुक्यकालीन मूर्तिकला
  • इसके चार प्रमुख केन्द्र बादामी, ऐहोल,पट्टडकल और महाकूट हैं। ये चारों कर्नाटक राज्य में अवस्थित हैं।
  • चालुक्य मूर्तियाँ बलिष्ठ और विशालकाय हैं तथा अंग-प्रत्यंग समानुपातिक हैं।
  • बादामी (कर्नाटक) में मिली नटराज की 18 हाथों की मूर्ति, विष्णु के त्रिविक्रम स्वरूप की मूर्ति, वाराह अवतार मूर्ति तथा बैकुंठ नारायण विष्णु की प्रशंसनीय प्रतिमाएँ मिली हैं।
  • पट्टडकल की मूर्तियाँ चालुक्य शिल्प में शांत, संतुलित, ऊर्जा से युक्त, जीवंत और भव्य हैं।
  • पट्टडकल से मिली त्रिपुरांतक और अंधकार मूर्तियों के साथ-साथ कैलाश पर्वत को उठाए रावण की मूर्ति को विशेष प्रशंसा मिली है।
  • ऐहोल की मूर्तियों के आलंकारिक अंकनों में विशेष कुशलता दिखाई देती है; यथा- लयबद्धता, धोती एवं अन्य वस्त्रों पर गहरी धारी दिखती है।
  • ऐहोल में बना दुर्गा मंदिर चालुक्य मूर्तिशिल्प का महत्त्वपूर्ण उदाहरण माना जाता है।
  • महाकूट के महाकूटेश्वर मंदिर में अर्द्धनारीश्वर, लकुलीश और हरिहर की मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
राष्ट्रकूटकालीन मूर्तिकला
  • इस दौर में मुख्यत: महाराष्ट्र के एलोरा, एलीफेंटा और कन्हेरी में मूर्तिशिल्प का काम हुआ है।
  • एलोरा या वेरूल और एलीफेंटा में शिव के विविध रूपों का विस्तारपूर्वक अंकन हुआ है।
  • एलोरा में शिव, विष्णु, शक्ति और सूर्य की मूर्तियों के उदाहरण हैं, जबकि कन्हेरी (महाराष्ट्र) में बौद्ध शिल्प के उदाहरण मिलते हैं।
  • एलोरा की मूर्तियों का ओज कथावस्तु के अनुसार है, लेकिन उसमें सजीवता नहीं दिखती। मूर्तियाँ चट्टानों को काटकर उन्हें उभारकर बनाई गई हैं।
  • मूर्तियों को वस्त्र कम लेकिन आभूषण अधिक पहनाए गए हैं।
  • एलोरा की सभी गुफाओं के बाहर अधिकांशत: द्वारपाल के रूप में गंगा एवं यमुना की मूर्तियाँ बनाई गई हैं।
ओडिशा (कलिंग) की मूर्तिकला
  • ओडिशा भारतीय वास्तुकला और मूर्तिशिल्प का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसमें पुरी के जगन्नाथ मंदिर, भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर तथा कोणार्क के सूर्य मंदिर के शिल्प को शामिल किया गया है।
  • पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की विशाल मूर्तियों के अलावा शिव-पर्वती, ब्रह्म-सावित्री और विष्णु-लक्ष्मी की भी मूर्तियाँ बनाई गई हैं।
  • कोणार्क के सूर्य मंदिर में सूर्य प्रतिमा का हास्य-भाव विशेष रूप से सराहा गया है।
  • सूर्य के अलावा सूर्य के साथी अरुण, ज्योतिष, नवग्रह, युद्ध, दरबार, मनुष्य की काम-क्रीड़ा सहित अन्य क्रियाकलाप, पशु आकृतियाँ, नृत्य एवं गायन से संबंधित मूर्तियाँ और विभिन्न हिस्सों पर राजा नरसिंह वर्मन से संबंधित 24 दृश्यों को उत्कीर्ण किया गया है।
  • लिंगराज मंदिर की मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग का लालित्य, अलंकरण, केश-विन्यास आदि विशेष रूप से दर्शनीय हैं।
  • पांडवों का स्वर्गारोहण, प्रेम-पत्र लिखती स्त्री, माता-शिशु, श्रृंगाररत नारियाँ, काम-क्रीड़ा के दृश्य, सूर्य-गणेश-कार्तिकेय, ब्रह्मा आदि मूर्तियों को लिंगराज मंदिर में उत्कृष्टता प्राप्त है।

पालकालीन मूर्तिकला

  • बंगाल के पाल शासक बौद्ध मतावलंबी थे, इसलिये उनके शासनकाल में बौद्ध कला को प्रश्रय मिला।
  • पाल युग में बुद्ध, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय, हरिति, बोधिसत्व, मंजूश्री, तारा आदि की मूर्तियाँ बनीं।
  • पाल शैली में बनी मूर्तियों में भाव-भंगिमाओं की अधिकता, अलंकरण और लक्षणों की प्रधानता के तत्त्व प्रभावी रूप में दिखाई देते हैं।
  • पालकालीन मूर्तिकला पर सारनाथ कला का प्रभाव माना गया है, जिसके अंतर्गत हल्के, इकहरे बदन और पारदर्शी वस्त्र पहनी मूर्तियाँ प्रमुख हैं।
  • पालकालीन मूर्तियों का निर्माण गया और राजमहल (बिहार) से मिलने वाले भूरे और काले रंग के मुलायम बेसाल्ट पत्थरों से हुआ है।
  • पत्थरों के मुलायम होने के कारण मूर्तिकला के लक्षणों और वस्त्राभूषण को सूक्ष्मता से उकेरा जाना संभव हो सका।
  • पाल मूर्तियाँ लेखयुक्त हैं और उनमें तिथियाँ भी दी गई हैं।
  • पाल प्रतिमाओं में मुख्यत: दैव-मूर्तियों के ही उदाहरण मिलते हैं, इनमें लौकिक विषयों का अभाव रहा है।
  • पाल शैली में बनी बौद्ध, जैन और ब्राह्मण मूर्तियों में शैली के स्तर पर समानता है, किंतु आयुध, वाहन और लाक्षणिकता के स्तर पर भिन्नता है।
  • पाल मूर्तियों में तंत्र से प्रभावित बौद्ध देवी-देवताओं का सर्वाधिक लाक्षणिक अंकन मिलता है।
  • नालंदा, गया, काशीपुर, शंकरबंध, कुर्किहार आदि पाल मूर्तिकला के प्रमुख स्थल हैं।

बुंदेलखंड (खजुराहो) की मूर्तिकला

  • खजुराहो में शिल्प का उत्कर्ष काल 9वीं से 12वीं सदी के मध्य तक का माना जाता है।
  • खजुराहो में भी मंदिर की दीवारों, गर्भगृह, शिखर, प्रदक्षिणालय आदि जगहों पर मूर्तियाँ उकेरी गई हैं।
  • खजुराहो की मूर्तियों में कलागत विकास के साथ-साथ काम-भावना के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
  • खजुराहो को विश्व-प्रसिद्धि दिलाने में मूर्तियों का बहुत योगदान है। इन्हें वस्त्राभूषणों से अलंकृत, अलौकिक और नृत्य-मुद्राओं में बनाया गया है।
  • खजुराहो में देवी-देवताओं, तीर्थंकरों और देव परिवार की मूर्तियों के साथ-साथ शृंगार-प्रधान मूर्तियाँ, लोक-जीवन की मूर्तियाँ एवं कल्पित पशु ‘व्याल’ (Vyal) की मूर्ति प्रमुख हैं।
  • खजुराहो के मंदिरों में काम-क्रीड़ा के दृश्यों की सर्वाधिक मूर्तियाँ बनी हैं।
  • रतिक्रिया में संलग्न ऐसी मूर्तियों में सामान्य और असामान्य दोनों प्रकार के संभोग के दृश्य हैं।
राजस्थान-गुजरात की मूर्तिकला
  • गुजरात के सोलंकी या चालुक्य राजाओं ने राजस्थान के सिरोही ज़िले में आबू पर्वत पर बने दिलवाड़ा जैन मंदिरों में बहुत शानदार कार्य करवाया।
  • इस काल की मूर्तियों की कला-शैली में समन्वयात्मक प्रवृत्ति देखने को मिलती है, जैसे दिलवाड़ा जैन मंदिर में कृष्ण लीलाओं का अंकन, मोढ़ेरा (गुजरात) के सूर्य मंदिर में अर्द्धनारीश्वर, हरिहर स्वरूपों के अलावा सूर्य, शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि का अंकन।
गोमतेश्वर मूर्ति- गंग-वंश से संबंधित मंत्री चामुण्ड राय ने पूर्वमध्यकाल में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में प्रथम तीर्थंकर के पुत्र बाहुबली की मान्यता पर आधारित सबसे भव्य और शानदार मूर्ति बनवाई जिसे गोमतेश्वर मूर्ति कहते हैं।धातु की नटराज मूर्ति चोल कला का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करती है।
  • चालुक्य मूर्तियां समय के साथ-साथ संख्यात्मक रूप से बढ़ती चली गईं, इसलिये कुंभारिया के जैन मंदिर (राजस्थान), मोढेरा का सूर्य मंदिर (गुजरात) और उसका सभा मंडप मूर्तियों से आच्छादित हैं।
  • चालुक्य जैन मूर्तियों में अलंकरण व तकनीकी दक्षता तो बहुत है, परंतु मूर्तियों के मुख पर भावशून्यता दिखाई देती है।

सल्तनतकालीन मूर्तिकला
  • मुसलमान शासकों के दौर में मूर्तिकला को राजकीय प्रश्रय न मिल पाने के कारण इसमें ह्रास आया, किंतु इसने अपना अस्तित्व नहीं खोया।
  • स्थानीय व क्षेत्रीय स्तरों पर कोणार्क, जगन्नाथपुरी, विजयनगर एवं तंजौर की मूर्तियों का निर्माण सल्तनतकाल में ही हुआ।
मुगलकालीन मूर्तिकला
  • यद्यपि मूर्तिकला मुगलकाल में भी राजकीय संरक्षण से दूर थी, तथापि संगतरासी का काम जारी था।
  • अकबर की सहिष्णुता के कारण जयमल और फत्ता की मूर्तियाँ आगरा के किले में झरोखा दर्शन के तले बनाई गईं।
  • मुगलकाल में हाथी दाँत से कलात्मक मूर्तियाँ बनाने की नई कला विकसित हुई।
आधुनिक काल/ ब्रिटिश काल की मूर्तिकला
  • लखनऊ में इस दौरान मूर्तिकला से संबंधित महत्त्वपूर्ण आर्ट स्कूल खोला गया।
  • बंगाल, मुम्बई, जयपुर, मद्रास, ग्वालियर, उत्तर प्रदेश एवं पंजाब मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्रों के रूप में ब्रिटिश काल में सामने आए।
  • आज़ादी के बाद देवी प्रसाद राय चौधरी यूरोपीय शैली से विलग पहले ऐसे मूर्तिकार थे जिन्होंने भारतीय स्पर्श देने के साथ कांस्य माध्यम में काम किया।
  • बिहार में पटना सचिवालय के सामने जो शहीद स्मारक है, उसे देवी प्रसाद राय चौधरी ने ही बनाया है।
  • इनके बाद रामकिंकर बैज ने मूर्तिकला में नए आयाम जोड़े व भारतीय मूर्तिकला को सुदृढ़ आधार प्रदान किया।
  • रामकिंकर बैज द्वारा 1938 में बनाई गई ‘संथाली परिवार’ की मूर्ति को बहुत प्रशंसा मिली।
  • आज की मूर्तिकला में नए प्रयोग हो रहे हैं तथा प्लास्टर ऑफ पेरिस से सुन्दर मूर्तियाँ निर्मित की जा रही हैं।
  • जयपुर (राजस्थान) देश में मूर्तिकला का प्रमुख केन्द्र है।
  • आधुनिक भारत में धातु कला के प्रमुख केन्द्र हैं- मद्रास, तिरुचिरापल्ली, तंजौर, मुम्बई, भुज तथा वाराणसी।
  • तांबे एवं कांसे के धातु कार्य के लिये उत्तर प्रदेश का मुरादाबाद जनपद प्रमुख है।

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