Wednesday, May 8, 2019

भारत में मानवाधिकार

Ashok Pradhan     May 08, 2019     No comments

संदर्भ
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1948 में 48 देशों के समूह ने समूची मानव-जाति के मूलभूत अधिकारों की व्याख्या करते हुए एक चार्टर पर हस्ताक्षर किये थे। इसमें माना गया था कि व्यक्ति के मानवाधिकारों की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिये। भारत ने भी इस पर सहमति जताते हुए संयुक्त राष्ट्र के इस चार्टर पर हस्ताक्षर किये। हालाँकि देश में मानवाधिकारों से जुड़ी एक स्वतंत्र संस्था बनाने में 45 वर्ष लग गए और तब कहीं जाकर 1993 में NHRC अर्थात् राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अस्तित्व में आया जो समय-समय पर मानवाधिकारों के हनन के संदर्भ में केंद्र तथा राज्यों को अपनी अनुशंसाएँ भेजता है।
  • वर्तमान समय में देश में जिस तरह का माहौल आए दिन देखने को मिलता है ऐसे में मानवाधिकार और इससे जुड़े आयामों पर चर्चा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। देश भर में मॉब लिंचिंग की घटनाएँ, बिहार के मुजफ्फरपुर और उसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के देवरिया में शेल्टर होम की बच्चियों के साथ हुए वीभत्स कृत्य देश में मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाते दिखते हैं।
  • कई विवादास्पद घटनाओं जैसे- ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद उत्पन्न दंगे, शाहबानो मामले के बाद मौलानाओं में भड़की विरोध की चिंगारी, बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के बाद देश भर में हुए दंगे, गुजरात में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगे, कश्मीर में आए दिन हो रहे दंगे इत्यादि के समय भी देश के नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन किसी से छिपा नहीं है।
  • हालाँकि ऐसे कई मसले हमें देखने को मिल जाते हैं जब मानवाधिकारों के उल्लंघन का गंभीर मुद्दा उठाते हुए NHRC अपने कर्त्तव्यों का बखूबी पालन करता है लेकिन फिर भी NHRC अन्य कई मामलों पर अपनी अनुशंसाएँ देने में खुद को लाचार पा रहा है। तो क्या इसे एक निष्प्रभावी संस्था मान लिया जाए? लिहाज़ा सवाल उठता है कि इस लाचारी के क्या कारण हैं और क्या इस लाचारी का कोई समाधान है? इस लेख के माध्यम से हम इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।
मानवाधिकार क्या है?
  • एक वाक्य में कहें तो मानवाधिकार हर व्यक्ति का नैसर्गिक या प्राकृतिक अधिकार है। इसके दायरे में जीवन, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार आता है। इसके अलावा गरिमामय जीवन जीने का अधिकार, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार भी इसमें शामिल हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाए गए मानवाधिकार संबंधी घोषणापत्र में भी कहा गया था कि मानव के बुनियादी अधिकार किसी भी जाति, धर्म, लिंग, समुदाय, भाषा, समाज आदि से इतर होते हैं। रही बात मौलिक अधिकारों की तो ये देश के संविधान में उल्लिखित अधिकार है। ये अधिकार देश के नागरिकों को और किन्हीं परिस्थितियों में देश में निवास कर रहे सभी लोगों को प्राप्त होते हैं।
  • यहाँ पर एक बात और स्पष्ट कर देना उचित है कि मौलिक अधिकार के कुछ तत्त्व मानवाधिकार के अंतर्गत भी आते हैं जैसे- जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता का अधिकार।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
भारत ने मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन और राज्य मानवाधिकार आयोगों के गठन की व्यवस्था करके मानवाधिकारों के उल्लंघनों से निपटने हेतु एक मंच प्रदान किया है।
  • भारत में मानवाधिकारों की रक्षा के संदर्भ में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग देश की सर्वोच्च संस्था के साथ-साथ मानवाधिकारों का लोकपाल भी है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होते हैं। यह राष्ट्रीय मानवाधिकारों के वैश्विक गठबंधन का हिस्सा है। साथ ही यह राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थानों के एशिया पेसिफ़िक फोरम का संस्थापक सदस्य भी है। NHRC को मानवाधिकारों के संरक्षण और संवर्द्धन का अधिकार प्राप्त है।
  • मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,1993 की धारा 12(ज) में यह परिकल्पना भी की गई है कि NHRC समाज के विभिन्न वर्गों के बीच मानवाधिकार साक्षरता का प्रसार करेगा और प्रकाशनों, मीडिया, सेमिनारों तथा अन्य उपलब्ध साधनों के ज़रिये इन अधिकारों का संरक्षण करने के लिये उपलब्ध सुरक्षोपायों के बारे में जागरूकता बढ़ाएगा।
  • इस आयोग ने देश में आम नागरिकों, बच्चों, महिलाओं, वृद्धजनों के मानवाधिकारों, LGBT समुदाय के लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिये समय-समय पर अपनी सिफ़ारिशें सरकार तक पहुँचाई हैं और सरकार ने कई सिफारिशों पर अमल करते हुए संविधान में उपयुक्त संशोधन भी किये हैं।
NHRC के कार्य
  • शिकायतें प्राप्त करना तथा लोकसेवकों द्वारा हुई भूल-चूक अथवा लापरवाही से किये गए मानवाधिकारों के उल्लंघन की जाँच-पड़ताल शुरू करना इसमें शामिल हैं ताकि मानवाधिकारों के उल्लंघन को रोका जा सके।
एक आँकड़े के अनुसार, अप्रैल 2017 से लेकर दिसंबर 2017 की अवधि के दौरान लगभग 61,532 मामले विचार हेतु दर्ज किये गए और आयोग ने लगभग 66,532 मामलों का निपटारा किया। इस अवधि के दौरान आयोग द्वारा नागरिक और राजनीतिक अधिकारों, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के कथित उल्लंघन के 49 मामलों की मौके पर जाँच की गई।
  • कैदियों की जीवन-दशाओं का अध्ययन करना, न्यायिक हिरासत तथा पुलिस हिरासत में हुई मृत्यु की जाँच-पड़ताल करना भी आयोग के कार्य-क्षेत्र में शामिल है। साथ ही NHRC मानवाधिकार से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय संधियों एवं अन्य संबंधित अभिसमयों और दस्तावेज़ों का अध्ययन तथा उनके प्रभावी अनुपालन की सिफारिश भी करता है।
  • भारत में मानवाधिकार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मानवाधिकार के क्षेत्र में शोध-कार्य करना भी NHRC के कार्यों के अंतर्गत आता है।
  • इसके अलावा भी यह आयोग कई और कार्य करता है जैसे-
♦ समाज के विभिन्न वर्गों में मानवाधिकार से संबंधित जागरूकता बढ़ाना।
♦ किसी लंबित वाद के मामले में न्यायालय की सहमति से उस वाद का निपटारा करवाना।
♦ लोकसेवकों द्वारा किसी भी पीड़ित व्यक्ति या उसके सहायतार्थ किसी अन्य व्यक्ति के मानवाधिकारों के हनन के मामलों की शिकायत की सुनवाई करना।
♦ मानसिक अस्पताल अथवा किसी अन्य संस्थान में कैदी के रूप में रह रहे व्यक्ति के जीवन की स्थिति की जाँच की व्यवस्था करना।
♦ संविधान तथा अन्य कानूनों के संदर्भ में मानवाधिकारों के संरक्षण के प्रावधानों की समीक्षा करना तथा ऐसे प्रावधानों को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करने के लिये सिफारिश करना।
♦ आतंकवाद या अन्य विध्वंसक कार्य के संदर्भ में मानवाधिकार को सीमित करने की जाँच करना।
♦ गैर-सरकारी संगठनों तथा अन्य ऐसे संगठनों को बढ़ावा देना जो मानवाधिकार को प्रोत्साहित करने तथा संरक्षण देने के कार्य में शामिल हों इत्यादि।
  • इस तरह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग हरसंभव भारत में मानवाधिकार की सुरक्षा के लिये आगे बढ़कर पहल करता है। इसके बावजूद कई दफा देखने को मिलता है कि जिस हिसाब से व्यक्ति के मानवाधिकार की रक्षा होनी चाहिये वह नहीं हो पाती। तो क्या इसके लिये मानवाधिकार आयोग को दोषी माना जाए या फिर हमारे यहाँ की व्यवस्था में ही खोट है?
भारत में मानवाधिकारों की स्थिति
देश के विशाल आकार और विविधता, विकासशील तथा संप्रभुता संपन्न धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा तथा पूर्व में औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है।
  • भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी निहित है। इन्हीं स्वतंत्रताओं का फायदा उठाते हुए आए दिन सांप्रदायिक दंगे होते रहते हैं। इससे किसी एक धर्म के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं होता है बल्कि उन सभी लोगों के मानवाधिकार आहत होते हैं जो इस घटना के शिकार होते हैं तथा जिनका घटना से कोई संबंध नहीं होता जैसे- मासूम बच्चे, गरीब पुरुष-महिलाएँ, वृद्धजन इत्यादि।
  • दूसरी तरफ, भारत के कुछ राज्यों से अफस्पा कानून इसलिये हटा दिये गए क्योंकि इस क़ानून के ज़रिये सैन्य-बलों को दिए गए विशेष अधिकारों का दुरूपयोग होने की वारदातें सामने आने लगीं। उदाहरण के तौर पर बिना वारंट किसी के घर की तलाशी लेना; किसी असंदिग्ध व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार करना; यदि कोई व्यक्ति कानून तोड़ता है, अशांति फैलाता है, तो उसे प्रताड़ित करना; महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करना इत्यादि ख़बरें अक्सर अखबारों में रहती थीं।
  • लिहाज़ा यहाँ सवाल उठता है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी भारत में मानवाधिकार पल-पल किसी-न-किसी तरह की प्रताड़ना का दंश झेल रहा है। ऐसे में यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि ऐसी कौन-सी चुनौतियाँ हैं जिनके कारण NHRC मानवाधिकारों की रक्षा करने में खुद को लाचार पा रहा है।
भारत में मानवाधिकार आयोग के सामने मौजूदा चुनौतियाँ
  • केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारें आयोग की सिफारिशें मानने के लिये बाध्य नहीं हैं। लिहाज़ा मानवाधिकारों के मज़बूती से प्रभावी नहीं रहने का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव ही है। यही कारण है कि हर ज़िले में एक मानवाधिकार न्यायालय की स्थापना का प्रावधान कागज़ो पर ही रह गया।
  • वहीं दूसरी तरफ राज्य मानवाधिकार आयोग केंद्र से जवाब-तलब नहीं कर सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि सशस्त्र बल उनके दायरे से बाहर हैं। यहाँ तक कि राष्ट्रीय आयोग भी सशस्त्र बलों पर मानवाधिकार के हनन के आरोप लगने पर केंद्र से महज रिपोर्ट मांग सकता है। जबकि गवाहों को बुला नहीं सकता, उनकी जाँच-पड़ताल, पूछताछ नहीं कर सकता। साथ ही आयोग के पास मुआवजा दिलाने के लिये सक्रियता तो है लेकिन आरोपियों को पकड़ने की दिशा में जाँच-पड़ताल करने का अधिकार नहीं है। सरल शब्दों में कहें तो आज भी मानवाधिकार आयोग के पास सीमित शक्तियाँ हैं।
  • मानवाधिकार संरक्षण कानून के तहत आयोग उन शिकायतों की जाँच नहीं कर सकता जो घटना होने के 1 साल बाद दर्ज कराई गई हों। लिहाज़ा अनेक शिकायतें बिना जाँच के ही रह जाती हैं।
  • पदों का खाली पड़े रहना, संसाधनों की कमी, मानवाधिकारों के प्रति जनजागरूकता की कमी, अत्यधिक शिकायतें प्राप्त होना और आयोगों के अंदर नौकरशाही ढर्रे की कार्यशैली इत्यादि इन आयोगों की समस्याएँ रही हैं।
ये सभी कारण जाने-पहचाने हैं लेकिन फिर भी इन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। लिहाज़ा अपने उद्देश्यों को पूरा करने में ये आयोग खुद को लाचार पाते हैं। इस स्थिति में मानवाधिकार आयोग भी सवालों के घेरे में आ गया है। इसकी तुलना उस गाय से की जाने लगी है जो चारा भी खाती है, जिसकी देखभाल भी होती है परंतु दूध नहीं दे सकती। लोगों का मानना है कि अगर मानवाधिकार आयोग आम आदमियों के लिये है तो भारत के दूरदराज़ इलाकों में रह रहे लोग जहाँ अशिक्षा और ग़रीबी व्याप्त है; अपने मूलभूत अधिकारों के बारे में अनजान क्यों हैं? मानवाधिकार आयोग के सदस्य भी तभी सचेत होते हैं जब किसी क्षेत्र-विशेष में कोई बहुत बड़ा हादसा जैसे- बलात्कार, फ़ेक एनकाउंटर, जातिगत अथवा सांप्रदायिक हिंसा आदि हो गया हो । इन परिस्थितियों में क्या NHRC या राज्य मानवाधिकार आयोगों को एक निष्प्रभावी संस्था मान लिया जाए? क्या इसका हल सुप्रीम कोर्ट तथा इन आयोगों के पास है?
आगे की राह
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें की हैं जिससे कि मानवाधिकार आयोग को और अधिक प्रभावी बनाया जा सके। प्रशासनिक सुधार आयोग का मानना है कि NHRC को विभिन्न सांविधिक आयोगों के समक्ष शिकायतें करने के लिये एकसमान प्रारूप तैयार किया जाए। इसके लिये पीड़ितों और शिकायतकर्त्ताओं का विवरण इस ढंग से दिया जाए जिससे विभिन्न आयोगों के बीच डेटा का तालमेल अच्छे से बैठ पाए।
  • मानवाधिकार आयोग को शिकायतों का निपटारा करने के लिये उपयोगी मानदंड निर्धारित करने चाहिये। ऐसे मुद्दों में कार्रवाई के निर्धारण तथा उसके समन्वयन के लिये आयोग में नोडल अधिकारी नियुक्त किये जाएँ और कार्यवाही को अधिक सफल बनाने के लिये प्रत्येक सांविधिक आयोग के अंदर एक आंतरिक पद्धति विकसित की जाए।
  • केंद्र तथा राज्य सरकारों को भी गंभीर अपराधों से निपटने के लिये सक्रियता के साथ कदम उठाने चाहिये। इसके लिये सरकारें मानवाधिकार आयोग की सहायता भी ले सकती हैं। भीड़तंत्र को लेकर भी सरकार को सख्त कानून अपनाने की जरूरत है। साथ ही सरकारों तथा मीडिया को गंभीर मसलों के साथ-साथ आम मसलों पर अपनी उदासीनता को त्यागने की दरकार है।
  • स्वयं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सहित संबद्ध राज्य आयोगों का भी यह कर्त्तव्य होना चाहिये कि वह देश के संजीदा मसले पर अपनी मौजूदगी जताकर उन समस्यायों का समाधान खोजने में सरकार की सहायता करें जो उनके अधिकार क्षेत्र के अंदर नहीं आते। तभी सही मायनों में देश में मानवाधिकारों की रक्षा हो पाएगी जब सभी संस्थाएँ मिलजुल कर देश की एकता-अखंडता को बरकरार रखने में एक-दूसरे का सहयोग करेंगी। ज़रूरत है तो सिर्फ एक नेक पहल की।

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