Friday, May 31, 2019

औद्योगिक क्रांति का जीवन पर प्रभाव

Ashok Pradhan     May 31, 2019     No comments

आर्थिक प्रभाव

  • उत्पादन में वृद्धि से वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ी।
  • उत्पादन में वृद्धि से निर्यात में वृद्धि।
  • स्वतंत्र कारीगर कारखानों से प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सके, फलत: कुटीर उद्योग समाप्त हो गए।
  • बड़े-बड़े कृषि फार्मों की स्थापना के कारण छोटे किसानों को रोज़गार की तलाश में गाँवों से शहरों की ओर जाना पड़ा।
  • औद्योगिक केंद्रों के आस-पास नवीन नगरों का विकास हुआ।
  • अब शहर आर्थिक गतिविधियों का आधार बन गए।
  • बाज़ारों की आवश्यकता ने सरकारों को उपनिवेश प्राप्ति के लिये प्रेरित किया।
  • उत्पादक और उपभोक्ता के बीच प्रत्यक्ष संबंध समाप्त हो गया।
  • औद्योगिक पूंजीवाद का जन्म हुआ।

सामाजिक प्रभाव

  • औद्योगिक क्रांति से नए सामाजिक वर्गों का उदय हुआ जैसे- मज़दूर एवं पूंजीपति।
  • अब आर्थिक मापदंड संबंधों का मुख्य सूत्र बन गया।
  • संबंधों का अर्थ आधारित होने से समाज में आर्थिक असुरक्षा की भावना बढ़ गई।
  • समाज में मध्यम वर्ग का प्रभाव बढ़ गया।
  • श्रमिकों में सामाजिक चेतना का उदय।
  • संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि।
  • श्रमिकों के शोषण से वर्ग-संघर्ष की शुरुआत।
  • औद्योगिक नगरों व केंद्रों की जनसंख्या बढ़ने से उनमें स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गईं।
  • श्रमिकों को अमानुषिक एवं निराशाजनक परिस्थितियों में काम करना पड़ता था।
  • बाल श्रम की कुप्रथा व्यापक स्तर पर प्रचलित हो गई थी।
  • चिकित्सा क्षेत्र में हुई महत्त्वपूर्ण खोजों के कारण मृत्यु दर में कमी आई।
  • जनसंख्या वृद्धि से आवास समस्या बढ़ी और साथ ही बेरोज़गारी में वृद्धि हुई।
  • महिलाओं के अधिकारों के समर्थन में जनमत निर्मित हुआ।

राजनीतिक प्रभाव

  • औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप राज्य के प्रशासनिक कार्यों में वृद्धि हुई।
  • उभरते मध्यवर्ग की संसदीय सुधार की मांग के कारण मताधिकार का विस्तार हुआ।
  • राजनीतिक सत्ता भू-स्वामियों के हाथ से निकलकर उभरते मध्यवर्ग के हाथ में आ गई।

विचारधारा पर प्रभाव

  • नवीन अर्थशास्त्रियों ने पुरानी आर्थिक पद्धति के स्थान पर व्यापारिक स्वतंत्रता तथा उन्मुक्त व्यापार के सिद्धांत पर बल दिया।
  • मज़दूरों की दशा सुधारने एवं जनकल्याण की भावना ने समाजवादी विधारधारा को जन्म दिया।
  • ब्रिटेन का मानवतावदी उद्योगपति रॉबर्ट ओवन आदर्शवादी समाजवाद का प्रणेत्ता था।
  • कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स के विचारों और नेतृत्व में ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ ने जन्म लिया।

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Thursday, May 30, 2019

असंगठित क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा का अभाव

Ashok Pradhan     May 30, 2019     No comments

संदर्भ

17वीं लोकसभा का गठन होने जा रहा है और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में नई सरकार कामकाज सँभालने की तैयारी में है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प रहेगा कि नई सरकार की वरीयताओं में असंगठित क्षेत्र के मुद्दे को जगह मिलती है या नहीं। वैसे देश के विनिर्माण क्षेत्र में सबसे अधिक योगदान असंगठित क्षेत्र का ही है...और यह भी उतना ही सच है कि इस क्षेत्र को सामाजिक सुरक्षा के लिये चलाई जाने वाली विभिन्न योजनाओं का लाभ नहीं मिलता।

भारत का विशाल असंगठित क्षेत्र

  • देश की अर्थव्यवस्था में 50% से अधिक का योगदान करने वाले असंगठित क्षेत्र के लोगों का कुल कार्यबल में हिस्सा 80 प्रतिशत है।
  • भारत का असंगठित क्षेत्र मूलतः ग्रामीण आबादी से बना है और इसमें अधिकांशतः वे लोग होते हैं जो गांव में परंपरागत कार्य करते हैं।
  • गांवों में परंपरागत कार्य करने वालों के अलावा भूमिहीन किसान और छोटे किसान भी इसी श्रेणी में आते हैं।
  • शहरों में ये लोग अधिकतर खुदरा कारोबार, थोक कारोबार, विनिर्माण उद्योग, परिवहन, भंडारण और निर्माण उद्योग में काम करते हैं।
  • इनमें अधिकतर ऐसे लोग है जो फसल की बुआई और कटाई के समय गांवों में चले जाते हैं और बाकी समय शहरों-महानगरों में काम करने के लिये आजीविका तलाशते हैं।
  • भारत में लगभग 50 करोड़ का कार्यबल है, जिसका 90% हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है।
  • इन उद्यमों में काम करने वाले श्रमिक 1948 के फैक्टरी एक्ट जैसे किसी कानून के अंतर्गत नहीं आते हैं।
भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने असंगठित श्रम बल को व्यवसाय, रोज़गार की प्रकृति, विशेष रूप से पीड़ित श्रेणी और सेवा श्रेणी- इन 4 भागों में बाँटा है।
  • व्यावसायिक श्रेणी में छोटे और सीमांत किसान, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, पशुपालक, बीड़ी बनाने वाले श्रमिक, निर्माण और आधारभूत संरचनाओं में कार्यरत श्रमिक, बुनकर आदि आते हैं।
  • रोज़गार की प्रकृति श्रेणी में बंधुआ मज़दूर, प्रवासी मज़दूर और दैनिक मजदूर आते हैं।
  • विशेष रूप से पीड़ित श्रेणी में सफाईकर्मी, सिर पर मैला ढोने वाले आदि आते हैं।
  • सेवा श्रेणी में घरेलू कामगार, महिलाएँ, नाई, सब्जी और फल विक्रेता, समाचार-पत्र विक्रेता आदि आते हैं।

क्या हैं असंगठित क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ?

उपरोक्त चारों श्रेणियों के काम, मजदूरी और रहन-सहन को लेकर कई समस्याएँ हैं।
बेहद कम आमदनी: असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की आय संगठित क्षेत्र की तुलना में न केवल कम है, बल्कि कई बार तो यह जीवन स्तर के न्यूनतम निर्वाह के लायक भी नहीं होती। इसके अलावा, अक्सर कृषि और निर्माण क्षेत्रों में पूरे वर्ष काम न मिलने की वज़ह से वार्षिक आय और भी कम हो जाती है। इस क्षेत्र में न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता, जो कि कर्मचारियों को दिया जाना बाध्यकारी है। इसलिये न्यूनतम मज़दूरी दरों से भी कम कीमतों पर ये कामगार अपना श्रम बेचने को विवश हो जाते हैं। वैसे भी हमारे देश में न्यूनतम मजदूरी की दरें वैश्विक मानकों की तुलना में बहुत कम हैं।
अस्थायी रोज़गार: असंगठित क्षेत्र में रोज़गार गारंटी न होने के कारण रोज़गार का स्वरूप अस्थायी होता है, जो इस क्षेत्र में लगे कामगारों को हतोत्साहित करता है। रोज़गार स्थिरता न होने के कारण इनमें मनोरोग का खतरा भी संगठित क्षेत्र के कामगारों से अधिक होता है। इनके पास विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं पहुँच पाता। बिचौलियों और अपने नियोक्ताओं द्वारा भी इनकी उपेक्षा की जाती है।
श्रम कानूनों के तहत नहीं आते: अधिकांश असंगठित श्रमिक ऐसे उद्यमों में काम करते हैं जहाँ श्रमिक कानून लागू नहीं होते। इसलिये इनकी कार्य दशा भी सुरक्षित नहीं होती और इनके लिये स्वास्थ्य संबंधी खतरे बहुत अधिक होते हैं।
खतरनाक उद्यमों में भी सुरक्षा नहीं: बाल श्रम, महिलाओं के साथ अन्याय की सीमा तक असमानता और उनका शारीरिक, मानसिक तथा यौन-शोषण आम बात है। कई व्यवसायों में स्वास्थ्य मानकों के न होने का मसला भी चुनौती के रूप में इस क्षेत्र से जुड़ा है। माचिस के कारखाने में काम करने वाले, कांच उद्योग में काम करने वाले, हीरा तराशने वाले, कीमती पत्थरों पर पॉलिश करने वाले, कबाड़ बीनने वाले, पीतल और कांसे के बर्तन बनाने वाले तथा आतिशबाजी बनाने वाले उद्यमों में बड़ी संख्या में बाल श्रमिक काम करते हैं। वे खतरनाक और विषाक्त रसायनों तथा ज़हरीले धुएँ आदि के संपर्क में आकर श्वास संबंधी बीमारियों, दमा, आँखों में जलन, तपेदिक, कैंसर आदि जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार बन जाते हैं।
बढ़ती हुई जटिल आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था : जटिल आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के बढ़ने से इन कामगारों का दैनिक जीवन कहीं ज्यादा व्यस्त और जीवन स्तर कहीं ज्यादा निम्न हो गया है। आय और व्यय के बीच असंगति ने इनकी आर्थिक स्थिति को इस लायक नहीं छोड़ा है कि ये बेहतर जीवन जी सकें। इसीलिये सरकार समय-समय पर अनेक योजनाएँ चलाती तो है, लेकिन इसके सामने बहुत सी बाधाएँ हैं, जो उन योजनाओं और नीतियों के क्रियान्वयन के आड़े आती हैं।

प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन पेंशन योजना

  • 2019-20 का अंतरिम बजट जब पेश हुआ था तो सरकार ने 15 हज़ार रुपए तक मासिक आय वाले असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिये ‘प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन पेंशन योजना’ शुरू करने का प्रस्ताव रखा था।
  • इसके तहत ऐसे कामगारों को उनकी वृद्धावस्‍था के दौरान व्‍यापक सामाजिक सुरक्षा देने का प्रस्ताव है।
  • इस पेंशन योजना से असंगठित क्षेत्र के कामगार एक छोटी-सी राशि के मासिक अंशदान से 60 साल की आयु से 3000 रुपए की निश्चित मासिक पेंशन प्राप्त कर सकेंगे।
  • इसके तहत 29 वर्ष की आयु में इस पेंशन योजना से जुड़ने वाले असंगठित क्षेत्र के कामगार को केवल 100 रुपए प्रतिमाह का अंशदान 60 वर्ष की आयु तक करना होगा।
  • 18 वर्ष की आयु में इस पेंशन योजना में शामिल होने वाले कामगार को सिर्फ 55 रुपए प्रतिमाह का अंशदान करना होगा।
  • सरकार हर महीने कामगार के पेंशन के खाते में इतनी ही राशि जमा करेगी।
  • संभावना है कि अगले पाँच सालों में असंगठित क्षेत्र के कम-से-कम 10 करोड़ श्रमिकों और कामगारों को इस योजना का लाभ मिल सकेगा। तब यह योजना दुनिया की सबसे बड़ी पेंशन योजनाओं में से एक बन जाएगी।
  • इस योजना के लिये 500 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की गई और यह योजना 15 फरवरी से लागू भी हो गई है।
इस सब के बावजूद आज भी इस वर्ग की सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा लगातार चिंता का विषय बना हुआ है। इस क्षेत्र से जुड़े लोगों में आजीविका असुरक्षा, बाल श्रम, मातृत्व (मैटरनिटी) सुरक्षा, छोटे बच्चों की देख-रेख, आवास, पेयजल, सफाई, अवकाश से जुड़े लाभ और न्यूनतम मज़दूरी जैसे मुद्दे बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं।
असंगठित क्षेत्र के कामगारों तक कोई भी सामजिक सुरक्षा योजना के लाभ पहुँचाने की राह में सबसे बड़ी बाधा यह है कि जब तक ऐसे कामगारों को चिन्हित न कर लिया जाए, तब तक इनका लाभ यह वर्ग नहीं उठा सकता...और यह अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।

सरकार की पहलें और चुनौतियाँ

असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा और कल्याण के लिये सरकार ने विधायी उपायों और कल्याण योजनाओं की द्विपक्षीय नीति अपनाई है।

कामगार सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008

विधायी उपायों में असंगठित क्षेत्र के कामगारों को सामाजिक सुरक्षा देने के संबंध में सरकार ने असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 अधिनियमित किया। यह अधिनियम राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड को कुछ ज़रूरी व्यवस्थाएँ उपलब्ध कराता है। इसके ज़रिये सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के निर्माण, जीवन और विकलांगता कवर, स्वास्थ्य और मातृत्व लाभ, वृद्धावस्था सुरक्षा और कोई भी अन्य लाभ, जो असंगठित मज़दूरों के लिये सरकार द्वारा निर्धारित किया गया है, उसके लिये अनुशंसाएँ दी जाती हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड का भी गठन किया गया है।

योजनाओं की कमी नहीं

  • राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य बीमा योजना (RSBY) असंगठित क्षेत्र में गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों को परिवार फ्लोटर आधार पर प्रतिवर्ष 30 हज़ार रुपए की स्‍मार्ट कार्ड आधारित नकदी रहित स्‍वास्थ्‍य बीमा सुरक्षा देने के लिये आरंभ की गई।
  • सरकार ने मृत्‍यु एवं अपंगता के लिये बीमा प्रदान करने के लिये आम आदमी बीमा योजना (AABY) प्रारंभ की है।
  • इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय वृद्धावस्‍था पेंशन (IGNOAP) योजना का भी कार्यान्‍वयन सरकार कर रही है।
  • असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों के लिये कई अन्य रोज़गार सृजन/सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सरकार लागू कर रही है, जैसे स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोज़गार योजना, स्वर्ण जयंती शहरी रोज़गार योजना, प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम, मनरेगा, हथकरघा बुनकर योजना, हस्तशिल्प कारीगर व्यापक कल्याण योजनाएँ, मछुआरों के कल्याण के लिये राष्ट्रीय योजना, प्रशिक्षण और विस्तार, जननी सुरक्षा योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना आदि।
  • सरकार द्वारा कामगारों की कुछ विशिष्ट श्रेणियों अर्थात् बीड़ी कामगारों, कुछ गैर-कोयला खान कामगारों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिये कल्‍याणकारी निधियाँ स्‍थापित की हैं। अन्य कल्‍याणकारी उपायों में स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल, आवास, बच्‍चों के लिये शैक्षिक सहायता, पीने के पानी की आपूर्ति इत्‍यादि शामिल हैं।
लेकिन इस सब के बावजूद असंगठित क्षेत्र में कामगारों को चिन्हित करने में आने वाली कठिनाइयाँ बहुत बड़ी समस्या है। साथ ही आंतरिक प्रवासन के कारण पहचान का मुद्दा और बड़ी तादाद में कंपनियों का पंजीकरण न होना भी कम बड़ी बाधा नहीं है।

संविधान में कल्याणकारी राज्य की संकल्पना

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषता एक कल्याणकारी राज्यकी स्थापना करना है। संविधान की प्रस्तावना और राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों से यह जाहिर है कि हमारा लक्ष्य सामाजिक कल्याण है। यह प्रस्तावना भारतीय लोगों के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-न्याय सुरक्षित करने का वादा करती है।
  • असंगठित श्रम के क्षेत्र में कई तरह के कार्य और व्यवसाय होने के कारण उनकी सुरक्षा के लिये उन्हें चिन्हित करना सबसे बड़ी चुनौती है।
  • इसके लिये व्यापक कानून बनाना होगा, जो असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिये न्यूनतम सुरक्षा तथा कल्याण के प्रावधान सुनिश्चित करे।
  • इसके बाद भी सरकार के लिये यह संभावना बनी रहेगी कि यदि आवश्यकता महसूस हो तो वह विविध रोज़गारों के लिये विशेष कानून बनाए।
  • यह ध्यान रखना होगा कि किसी नए कानून से वह प्रमुख अधिकार या सामाजिक सुरक्षा न छिन जाए, जिनकी व्यवस्था व्यापक कानून ने की है।
  • इस व्यवस्था से भारतीय संविधान की संघीय व्यवस्था का भी सम्मान होगा तथा कई तरह के कामों में लगे मज़दूरों की विशेष ज़रूरतें भी पूरी हो सकेंगी।
  • सीमांत और छोटे किसानों के लिये ऋण का बेहतर प्रबंधन, सिंचाई परियोजनाओं का विकास, फसल जोखिम पर सुरक्षा और तकनीक का विकास असंगठित क्षेत्र के लिये वरदान साबित हो सकता है।
  • गैर-कृषि क्षेत्र में कौशल विकास द्वारा रोज़गार के बेहतर अवसर बनाना, सामूहिक विकास केंद्रों की स्थापना करना, अधिकाधिक लोगों को Skill India से जोड़ना भी प्रभावी उपाय हो सकते हैं। इससे विभिन्न क्षेत्रों में श्रमिकों की कार्य क्षमता को बढ़ावा मिल सकता है।
  • इसके अलावा Skill Mart, कौशल पुस्तकालय और रोज़गार मेलों के आयोजन को अधिक प्रभावी बनाने की ज़रूरत है।
  • असंगठित क्षेत्र में हमारे देश की आबादी का एक बड़ा तबका आता है, इसलिये कार्य दशाओं, न्यूनतम मज़दूरी और श्रमिक हितों का संरक्षण करने के लिये कानून को पुनः संरचित करना होगा।
  • यह भी ध्यान देना होगा कि ये सभी नीतियाँ और कानून सैद्धांतिक न होकर व्यावहारिक रूप में भी अमल में आएँ ताकि असंगठित कामगारों को जरूरी लाभ मिल सके।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों में से अधिकांश को न तो सरकारों की ओर से तय न्यूनतम वेतन मिलता है और न ही पेंशन या स्वास्थ्य बीमा जैसी कोई सामाजिक सुरक्षा इन्हें मिल पाती है। उन्हें चिकित्सा, देखभाल, दुर्घटना, मुआवजा, वेतन सहित अवकाश और पेंशन योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता। ऐसे में सरकार को असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिये समग्र नीति बनानी चाहिये और अर्थव्यवस्था में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए व्यवस्था में उचित भागीदारी देनी चाहिये। सरकार को विशेष रूप से निर्माण क्षेत्र, घरेलू नौकरों, मंडियों में काम करने वाले श्रमिकों और रेहड़ी-पटरी वालों पर ध्यान देना चाहिये। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को नीति निर्माण में भागीदारी देनी चाहिये और राजस्व में उनकी हिस्सेदारी को देखते हुए सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध करानी चाहिये।

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Sunday, May 26, 2019

Ras Mains English Letter (Paper-IV)

Ashok Pradhan     May 26, 2019     No comments







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Wednesday, May 22, 2019

Springboard RAS Test Series

Ashok Pradhan     May 22, 2019     4 comments

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जैव विविधता – खतरे की घंटी

Ashok Pradhan     May 22, 2019     No comments

संदर्भ

हाल ही में जारी यू.एन. रिपोर्ट के अनुसार, मानव गतिविधियों के कारण दस लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार मानव ने उन प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किया है जिन पर हमारा अस्तित्व निर्भर करता है।
  • 50 देशों के 145 विशेषज्ञ लेखकों द्वारा संकलित यह रिपोर्ट लगभग 15,000 वैज्ञानिक और सरकारी स्रोतों की समीक्षा पर आधारित है।
  • प्लैनेट की जैव विविधता की स्थिति के संबंध में यह 15 वर्षों के दौरान पहली व्यापक रिपोर्ट है।

जैव विविधता (Biodiversity)

  • जैव विविधता का अर्थ पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवों की विविधता से है। अर्थात् किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों एवं वनस्पतियों की संख्या एवं प्रकारों को जैव विविधता माना जाता है।
  • 1992 में रियो डि जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता की मानक परिभाषा के अनुसार- जैव विविधता समस्त स्रोतों यथा-अंतर क्षेत्रीय, स्थलीय, सागरीय एवं अन्य जलीय पारिस्थितिक तंत्रों के जीवों के मध्य अंतर और साथ ही उन सभी पारिस्थितिक समूह जिनके ये भाग हैं, में पाई जाने वाली विविधता है।
  • इसमें एक प्रजाति के अंदर पाई जाने वाली विविधता, विभिन्न जातियों के मध्य विविधता तथा परिस्थितिकीय विविधता सम्मिलित है।
  • जैविक विविधता पर कन्वेंशन, आर्टिकल-2 : जैविक विविधता का अर्थ है, सभी स्रोतों से संबंधित जीवों के बीच परिवर्तनशीलता जैसे-स्थलीय, समुद्री और अन्य जलीय पारिस्थितिक तंत्र तथा पारिस्थितिक समूह जिसके वे भाग हैं इसमें प्रजातियों और पारिस्थितिकी प्रणालियों के बीच विविधता शामिल है।
  • इसे तीन स्तरों पर समझा जा सकता है:
  • प्रजाति विविधता विभिन्न प्रजातियों (पौधों, जानवरों, कवक और सूक्ष्मजीवों) की विविधता को संदर्भित करती है जैसे-ताड़ के पेड़, हाथी या बैक्टीरिया।
  • आनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity) पौधों, जीवों, कवकों और सूक्ष्मजीवों में निहित जीनों की विविधता से मेल खाती है।
  • यह एक प्रजाति के साथ-साथ अन्य प्रजातियों में पाई जाती है। उदाहरण के लिये पूडल (poodles), जर्मन शेफर्ड और गोल्डन रिट्रीवर (Golden Retrievers) सभी कुत्ते की प्रजातियाँ हैं, लेकिन वे सभी अलग-अलग दिखते हैं।
  • पारिस्थितिक तंत्र विविधता सभी विभिन्न मौजूद अधिवासों या वास स्थानों को संदर्भित करती है, जैसे- उष्णकटिबंधीय या समशीतोष्ण वन, गर्म और ठंडे रेगिस्तान, आर्द्रभूमि, नदी, पहाड़, प्रवाल भित्तियाँ आदि। प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र जैव (Biotic) (जीवित) घटकों, जैसे- पौधों और जीवों तथा अजैविक (Abiotic) (नॉन-लिविंग) घटक जैसे-सूर्य का प्रकाश, वायु, जल, खनिज और पोषक तत्त्वों के बीच जटिल संबंधों की एक श्रृंखला होती है।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष

  • भूमि पर आधा मिलियन से अधिक प्रजातियों के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिये अपर्याप्त निवास स्थान है और उनके विलुप्त होने की संभावना है। वर्तमान में औसतन 25% जीवों और पौधों के अस्तित्व को खतरा है।
  • कीटों की आबादी के संबंध में वैश्विक रुझानों की जानकारी तो नहीं ज्ञात हो सकी है लेकिन रिपोर्ट में कुछ स्थानों पर तेज़ी से गिरावट की बात कही गई है।
  • विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जंगलों को आश्चर्यजनक रूप से नष्ट किया गया है। 1980 और 2000 के बीच 100 मिलियन हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय वन नष्ट किये जा चुके थे। 1992 से शहरी क्षेत्र दोगुने से अधिक हो गए हैं।
  • पशुधन के साथ निर्वनीकरण तथा कृषि, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लगभग एक-चौथाई हिस्से के लिये ज़िम्मेदार है तथा साथ-ही-साथ प्राकृतिक पारिस्थितिकी पर भी कहर बरपाया है।
  • मृदा का पहले से कहीं अधिक निम्नीकरण किया गया है जिससे मृदा की उत्पादकता 23% तक कम हो गई है।
  • दुनिया की एक तिहाई से अधिक भूमि की सतह और दुनिया के लगभग 75% मीठे जल के संसाधन अब फसल या पशुधन उत्पादन के लिये उपयोग में लाए जा रहे हैं।
  • प्लास्टिक प्रदूषण में 1980 से दस गुना वृद्धि हुई है। हर साल, दुनिया भर में 300-400 मिलियन टन भारी धातुओं, सॉल्वैंट्स और अन्य कचरे को पानी में बहा दिया जाता है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, हमें यह समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन और प्रकृति का नुकसान न केवल पर्यावरण के लिये चिंता का विषय है बल्कि विकास और आर्थिक मुद्दों के संदर्भ में भी चिंतित करने वाला है।
  • पारिस्थितिकविदों ने चेतावनी दी है कि यदि वर्तमान रुझान जारी रहता है तो अगले 100 वर्षों के भीतर पृथ्वी पर सभी प्रजातियों में से लगभग आधी प्रजातियों का सफाया हो सकता है।

पर्यावरणीय समस्याएँ

1. प्लास्टिक अपशिष्ट (Plastic Waste)
दुनिया भर में लगभग 8 मिलियन टन प्लास्टिक हर साल समुद्र में बहाया जाता है। प्लास्टिक का निर्माण पेट्रोलियम पदार्थों से निकलने वाले तत्त्वों और रसायनों से होता है, जो इसके उत्पादन से लेकर उपयोग और अंत में कचरे के रूप में विभिन्न रासायनिक क्रियाओं के माध्यम से विषाक्त प्रभाव पैदा करने का कारण बनता है।
  • यह मानव और जीवों के लिये बहुत अधिक खतरनाक है। प्लास्टिक कचरा न केवल समुद्री जीवों को प्रभावित करता है बल्कि समुद्री साल्ट को भी प्रभावित करता है।
  • 90% से अधिक समुद्री जीव किसी-न-किसी प्रकार से प्लास्टिक को आहार के रूप में ले रहे हैं, जबकि 1960 के दशक में यह आँकड़ा केवल 5% था।
  • प्लास्टिक सीवर, निर्माण गतिविधियों, मछली पकड़ने, शिपिंग आदि के माध्यम से समुद्र में बहाया जाता है।
  • अपशिष्ट प्रबंधन के लिये रिड्यूस (Reduce), रीयूज़ (Reuse) तथा रीसाइकल (Recycle) प्रक्रिया को अपनाए जाने की सलाह दी गई है।
2. माइक्रोप्लास्टिक (Microplastics)
  • माइक्रोप्लास्टिक पाँच मिलीमीटर से कम लंबे प्लास्टिक के टुकड़े होते हैं, जो जलीय जीवों तथा पक्षियों द्वारा भोजन के रूप में इस्तेमाल किये जाते है।
  • ये जल निकायों में प्रवेश करते हैं और अन्य प्रदूषकों के लिये वाहक के रूप में कार्य करते हैं। ये खाद्य श्रृंखला में कैंसरजन्य रासायनिक यौगिकों के वाहक होते हैं|
  • प्रशांत, अटलांटिक और हिंद महासागर में उच्च स्तर के माइक्रोप्लास्टिक्स पाए जाते हैं।
3. जलवायु परिवर्तन (Climate Change)
  • जलवायु परिवर्तन पिछले कुछ दशकों से एक गंभीर समस्या बनी हुई है।
  • यह ग्रीनहाउस गैसों और अन्य प्रदूषकों द्वारा वातावरण के प्रदूषण के कारण होता है।
  • यह स्वच्छ वायु, पेयजल, भोजन और आश्रय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को प्रभावित करता है।
  • ग्लोबल वार्मिंग, जो कि जलवायु में परिवर्तन के कारण होता है, का प्रभाव सिकुड़ते ग्लेशियर, नदियों और झीलों पर बर्फ का पिघलना, सूखा, चरम मौसम आदि के रूप में दिखाई देता है।
4. निर्वनीकरण (Deforestation)
  • ऐसा अनुमान है कि दुनिया के लगभग आधे से अधिक वनों को मनुष्यों द्वारा नष्ट किया जा चुका है।
  • वन वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र और जीवमंडल का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। ये जलवायु को विनियमित करने में मदद करते हैं, मिट्टी को कटाव से बचाते हैं तथा बड़ी संख्या में पौधों और जीवों की प्रजातियों को आवास प्रदान करते हैं।
5. मृदा निम्नीकरण (Land Degradation)
  • मृदा निम्नीकरण एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या है। सामान्यत: कृषि, उद्योग और शहरीकरण के लिये मृदा का अवैज्ञानिक प्रबंधन और अनावश्यक इस्तेमाल के कारण मृदा गुणवत्ता में भौतिक, रासायनिक और जैविक रूप से गिरावट को ही मृदा निम्नीकरण कहा जाता है।
  • मृदा मौलिक प्राकृतिक संसाधन है और समस्त धरातलीय जीवन का आधार है। अत: मृदा निम्नीकरण का निराकरण किया जाना जीवन के स्वस्थ रहने के लिये आवश्यक है। अतिरेक मृदा निम्नीकरण के तात्कालिक और दीर्घकालिक नुकसान हैं।
  • हाल ही में किये गए एक वैज्ञानिक आकलन के अनुसार, पृथ्वी पर केवल एक-चौथाई भूमि ही मानव गतिविधियों के प्रभाव से मुक्त है जिसके 2050 तक घटकर दोगुने से अधिक होने का अनुमान है।
  • मृदा निम्नीकरण के कारण कई प्रजातियों, आवासों की गुणवत्ता और पारिस्थितिक तंत्र की कार्यप्रणाली पर प्रभाव पड़ता है।
6. अधिक आबादी (Overpopulation)
  • यह पर्यावरण की महत्त्वपूर्ण समस्याओं में से एक है।
  • कम विकसित और विकासशील देशों में जनसंख्या विस्फोट पहले से ही संसाधनों की संकट की स्थिति को और गंभीर बना रहा है।
  • हाल के विश्लेषण से पता चला है कि प्राकृतिक संसाधनों का विनाश यदि तत्काल रोक भी दिया जाए तो प्राकृतिक दुनिया को सामान्य अवस्था में आने में 5-7 वर्ष का समय लगेगा।
7. प्रकाश प्रदूषण (Light Pollution)
  • प्रकाश प्रदूषण, जिसे अंग्रेज़ी में फोटो पोल्यूशन या लुमिनस पोल्यूशन के रूप में जाना जाता है, अत्यधिक या बाधक कृत्रिम प्रकाश होता है।
  • कृत्रिम प्रकाश का अनुचित या अत्यधिक उपयोग, जिसे प्रकाश प्रदूषण के रूप में जाना जाता है, का मानव और वन्यजीवों पर गंभीर पर्यावरणीय दुष्प्रभाव पड़ता है।
  • प्रकाश प्रदूषण रात के समय आकाश में सितारों को धुँधला कर देता है, खगोलीय वेधशालाओं के साथ हस्तक्षेप करता है और प्रदूषण के किसी भी अन्य रूप की तरह पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है तथा मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालता है।
  • अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश से कीटों और जानवरों की संख्या तथा उनके व्यवहार में प्रतिकूल परिवर्तन दिखाई देता है। कृत्रिम प्रकाश जानवर के प्राकृतिक शारीरिक चक्र को भ्रमित करता है, इस प्रकार इसकी प्रतिरक्षा प्रणाली को भी प्रभावित करता है।
  • जब भी और जहाँ भी आवश्यक हो, लाइट बंद करके प्रकाश प्रदूषण से निपटा जा सकता है।

अन्य प्रजातियों पर मानव गतिविधियों का प्रभाव

  • कई वैज्ञानिकों को लगता है कि दुनिया जीवों के छठे प्रमुख सामूहिक विलुप्ति (Mass Extinction) के बीच में है, जिसका कारण पूरी तरह से मानव है।
  • लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट, 2018 के अनुसार, मानव गतिविधियों ने 1970 तक पृथ्वी के 60% स्तनधारियों, पक्षियों, मछलियों और सरीसृपों को नष्ट कर दिया है। पिछले 30 वर्षों में उथले पानी के कोरल का लगभग आधा हिस्सा नष्ट हो गया है।
  • वर्तमान में अनेक कानूनों के बावजूद लाखों विदेशी और जंगली पक्षियों एवं वन्यजीवों का अवैध व्यापार अथवा उनका शिकार तथा उन्हें बेचा जाता है।
  • पक्षी कचरे और खतरनाक अवशेषों को खत्म करने में मदद करते हैं तथा मनुष्यों और अन्य जीवों में बीमारी के प्रसार को कम करते हैं।

मधुमक्खियाँ (Bees)

  • मधुमक्खियाँ असाधारण प्राणी हैं जो दुनिया भर के सभी प्रकार की जलवायु में मौजूद हैं।
  • मधुमक्खियाँ वास्तव में कीस्टोन (Keystone) प्रजातियाँ हैं। जीवित रहने के लिये उन पर अन्य प्रजातियाँ निर्भर होती हैं।
  • परागण न केवल अन्य जीवों के लिये भोजन उपलब्ध कराता है, बल्कि पुष्प वृद्धि को भी बढ़ावा देता है जो कई जीवों का आवास प्रदान करता है।
  • परागणकों के रूप में मधुमक्खियाँ विश्व अर्थव्यवस्था में अरबों रुपए का योगदान करती हैं।
  • भारत जैसी कृषि अर्थव्यवस्थाओं में मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट के कारण उच्च जोखिम का सामना करना पड़ता है। मधुमक्खियों के बिना, भारत के खाद्यान्न उत्पादन में एक-तिहाई की कमी आएगी, क्योंकि भारत में 160 मिलियन हेक्टेयर तैयार फसलों में से 55 मिलियन हेक्टेयर फसलों में परागण मधुमक्खियों पर निर्भर है।
  • पिछले एक दशक से दुनिया भर में मधुमक्खियों की आबादी में लगातार गिरावट देखी जा रही है।

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ जैव विविधता को भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण मुद्दा माना जाना चाहिये। जैव विविधता में गिरावट न केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा है, बल्कि यह आर्थिक, सुरक्षात्मक तथा नैतिक मुद्दा भी है। सबसे बड़ी चुनौती तथा अवसर का संबंध विकास के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव से है। लोगों को प्रकृति की रक्षा के लिये स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में बदलाव करना होगा। अतः प्रकृति को बचाने के लिये एक वैश्विक डील के लिये सभी देशों को एक मंच पर आने की ज़रूरत है।

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Utkarsh Jodhpur (RAS) Test Series

Ashok Pradhan     May 22, 2019     2 comments

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Ashok Pradhan     May 22, 2019     No comments

कलक्टर | Collector | Motivational Movie

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IAS Officer Govind Jaiswal, Son of Rickshaw Puller (Inspirational Story)

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Globalization 4.0 (English)

Ashok Pradhan     May 22, 2019     No comments

Why in News

  • Globalization 4.0 was the theme for World Economic Forum Annual Meeting 2019 held in Davos, Switzerland in January 2019.
  • Under the rubric of Globalization 4.0, a series of "Global Dialogues" in Davos focused on the interrelated areas namely geopolitics, future of global economy, global dialogue on industry systems etc.

Globalization 4.0

  • Globalization is a phenomenon driven by technology and the movement of ideas, people, and goods.
  • Globalization 4.0 is latest stage of globalization which involves cutting-edge new technologies like artificial intelligence that powers forward with the explosion of information technology.
  • These technologies shrink distances, open up borders and minds and bring people all across the globe closer together.
Timeline: Earlier Waves of Globalization
  • Globalization 1.0
    • It was pre-World War I globalization, which was launched by a historic drop in trade costs.
    • This globalization came with almost no government support.
    • There was no global governance.
  • Globalization 2.0
    • It is the post-World War II phase where trade in goods was combined with complimentary domestic policies.
    • The market was in charge of efficiency while the government was in charge of justice.
    • It saw the establishment of institute-based, rule-based international governance, specifically the UN, IMF, World Bank, GATT/WTO, International Labor Organization etc.
  • Globalization 3.0
    • It created a new world of manufacturing in which high-tech was combined with low wages.
    • This was achieved through establishment of global supply chains as factories crossed international borders.
    • It was variously called New Globalization, Hyper globalization, Global value chain evolution.

Characteristics of 4.0

  • Major turbulence for Service Sector: While Globalization 1.0, 2.0 and 3.0 were mainly a concern of people who made/manufactured products for a living (since globalization focused on things that we made), Globalization 4.0 is going to hit people in the service sector.
  • Closely integrated with Industry 4.0: Ever-faster data connection speeds and new artificial intelligence tools like machine translation, big data are opening up services jobs in rich countries like architecture, accounting, and web design to competition from practitioners in emerging economies.
  • Newer modes of Migration: Due to faster data connection as well as nature of work which may involve no physical presence there may be a global tele-migration in which the skilled migrants never have to leave home.
Industry 4.0
  • Building on the foundation given by the Third Industrial Revolution, Fourth Industrial Revolution (Industry 4.0) is moving from an electronic based industry to a process which is the combination of human beings and electronics.
  • It includes cyber-physical systems, the Internet of things, big data analytics, cloud computing, cognitive computing, artificial intelligence, 3-D printing, and autonomous vehicles etc.

Challenges of Globalization 4.0

  • Political crisis and Global level conflict:Globalization 4.0 could, like preceding waves of globalization, have mixed results e.g. even though countries are globally connected political crisis and global level conflict have also increased.
  • Economic exclusion: Economic opportunities will be uncertain, many may not have the skills needed for the jobs of the future. If countries and communities are not fully prepared for Globalization 4.0, problems may exacerbate.
  • Income Inequality: Negative effects of globalization have a disproportionate impact on already marginalized populations. Globalization 4.0 may increase income inequality even if it can create more wealth.
  • Human Resource: Countries like India, if do not step up to meet the skill requirements of globalisation 4.0, may already be staring at demographic disaster, given its huge population and low employment generation.
  • Unintended consequences: Globalization 4.0 in conjunction with Industry 4.0 will produce many unintended consequences which may not be foreseeable for now and for which world is vastly unprepared the ethical, legal, environmental concerns are yet to be seen for which no framework has been laid out.
  • Infrastructural challenges: Apart from skilling, India also needs to set up required infrastructure and technology to harness the advantages of globalization 4.0.
  • Challenges for Developing countries:
    • The European continent, North America and some Asian countries have been able to take advantage of the industrial revolution and globalization, while many African, Latin American and some Asian countries failed to benefit as much.
    • Globalization 4.0 will create additional challenges many African and Asian nations which were already excluded from the benefits of earlier waves of globalization.

Way Forward

  • Invest in strengthening local and regional economies: We should proactively build resilient local and regional systems that can participate in the next wave of globalization, making sure regions have the right mix of education, employment and infrastructure to create and sustain jobs locally.
  • Prioritizing sustainability and Inclusiveness:The need of the hour is to design a blueprint from the ground up that can capitalize on new opportunities while prioritizing sustainability and inclusiveness more than ever before.
  • Focus on the most vulnerable populations:Global and local institutions need to advance both universal and targeted strategies to improve outcomes for everyone ensuring vulnerable population is not left out.
  • Stop climate change: The challenges of Globalization 4.0 will be compounded if resources that could be put towards strengthening local economies and education are diverted to mitigate climate change. Thus climate change needs to be dealt at global level.
  • Promote Innovation in educational institution and education curriculum:
    • By 2022, at least 54% of employees globally will require re- and up-skilling.
    • Not only do we need to support people in getting the training they need for jobs in the next five years, but we need to prepare young students with the skills to adapt to the types of jobs we will need in the next 20 years.
    • New Zealand is implementing a national technology curriculum to teach students to be digital creators, as well as consumers.
  • Engagement and imagination: The task of dealing with challenges of Globalization 4.0 requires two things of the international community: wider engagement, participation and heightened imagination.

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