Wednesday, July 3, 2019

लोकपाल और लोकायुक्त (Lokpal and Lokayukta)

Ashok Pradhan     July 03, 2019     1 comment

क्या हैं लोकपाल और लोकायुक्त?

  • लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम, 2013 ने संघ (केंद्र) के लिये लोकपाल और राज्यों के लिये लोकायुक्त संस्था की व्यवस्था की।
  • ये संस्थाएँ बिना किसी संवैधानिक दर्जे वाले वैधानिक निकाय हैं।
  • ये Ombudsman का कार्य करते हैं और कुछ निश्चित श्रेणी के सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करते हैं।

हमें ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता क्यों है?

  • खराब प्रशासन दीमक की तरह है जो धीरे-धीरे किसी राष्ट्र की नींव को खोखला करता है तथा प्रशासन को अपने कार्य पूर्ण करने में बाधा डालता है। भ्रष्टाचार इस समस्या की जड़ है।
  • अधिकतर भ्रष्टाचार निरोधी संस्थाएँ पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हैं। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी CBI को ‘पिंजरे का तोता’ और ‘अपने मालिक की आवाज़’ बताया है।
  • इनमें से कई एजेंसियाँ नाममात्र शक्तियों वाले केवल परामर्शी निकाय हैं और उनकी सलाह का शायद ही अनुसरण किया जाता है।
  • इसके अलावा आंतरिक पारदर्शिता और जवाबदेही की भी समस्या है, क्योंकि इन एजेंसियों पर नज़र रखने के लिये अलग से कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है।
  • इस संदर्भ में, एक स्वतंत्र लोकपाल संस्था भारतीय राजनीति के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है, जिसने कभी समाप्त न होने वाले भ्रष्टाचार के खतरे का एक समाधान प्रस्तुत किया है।

पृष्ठभूमि

  • लोकपाल यानी Ombudsman संस्था की आधिकारिक शुरुआत वर्ष 1809 में स्वीडन में हुई।
  • 20वीं शताब्दी में एक संस्था के रूप में ओम्बुड्समैन का विकास हुआ और यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तेज़ी से आगे बढ़ा।
  • 1962 में न्यूजीलैंड और नॉर्वे ने यह प्रणाली अपनाई और ओम्बुड्समैन के विचार का प्रसार करने में यह बेहद अहम सिद्ध हुआ।
  • वर्ष 1967 में 1वर्ष 961 के व्हाट्ट रिपोर्ट (Whyatt Report) की सिफारिश पर ग्रेट ब्रिटेन ने ओम्बुड्समैन संस्था को अपनाया तथा लोकतांत्रिक विश्व में इसे अपनाने वाला पहला बड़ा देश बन गया।
  • गुयाना प्रथम विकासशील देश था, जिसने वर्ष 1966 में ओम्बुड्समैन का विचार अपनाया। इसके बाद मॉरीशस, सिंगापुर, मलेशिया के साथ भारत ने भी इसे अपनाया।
  • भारत में संवैधानिक ओम्बुड्समैन का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1960 के दशक की शुरुआत में कानून मंत्री अशोक कुमार सेन ने संसद में प्रस्तुत किया था।
  • लोकपाल एवं लोकायुक्त शब्द प्रख्यात विधिवेत्ता डॉ. एल.एम. सिंघवी ने पेश किया।
  • वर्ष 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकारी अधिधिकारियों (संसद सदस्य भी शामिल) के विरुद्ध शिकायतों को देखने के लिये केंद्रीय तथा राज्य स्तर पर दो स्वतंत्र प्राधिकारियों की स्थापना की सिफारिश की थी।
  • वर्ष 1968 में लोकसभा में लोकपाल विधेयक पारित हुआ, लेकिन लोकसभा के विघटन के साथ ही यह कालातीत हो गया और इसके बाद से यह लोकसभा में कई बार कालातीत हुआ।
  • वर्ष 2011 तक विधेयक पारित करने के लिये आठ प्रयास किये गए, लेकिन सभी में असफलता ही मिली।
  • वर्ष 2002 में एम. एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिये गठित आयोग ने लोकपाल व लोकायुक्तों की नियुक्ति की सिफारिश करते हुए प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखने की बात कही।
  • वर्ष 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की कि लोकपाल का पद जल्द-से-जल्द स्थापित किया जाय।
  • वर्ष 2011 में सरकार ने प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों का एक समूह भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने हेतु सुझाव देने तथा लोकपाल विधेयक के प्रस्ताव का परीक्षण करने के लिये गठित किया।
  • अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत आंदोलन’ ने केंद्र में तत्कालीन UPA सरकार पर दवाब बनाया और इसके परिणामस्वरूप संसद के दोनों सदनों में लोकपाल व लोकायुक्त विधेयक, 2013 पारित हुआ।\
  • 1 जनवरी, 2014 को राष्ट्रपति ने इसे अपनी सम्मति दे दी और 16 जनवरी, 2014 को यह लागू हो गया।

लोकपाल एवं लोकायुक्त (संशोधन) विधेयक, 2016

  • लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 को संशोधित करने के लिये यह विधेयक संसद ने जुलाई 2016 में पारित किया।
  • इसके द्वारा यह निर्धारित किया गया कि विपक्ष के मान्यता प्राप्त नेता के अभाव में लोकसभा में सबसे बड़े एकल विरोधी दल का नेता चयन समिति का सदस्य होगा।
  • इसके द्वारा वर्ष 2013 के अधिनियम की धारा 44 में भी संशोधन किया गया जिसमें प्रावधान है कि सरकारी सेवा में आने के 30 दिनों के भीतर लोकसेवक को अपनी सम्पत्तियों और दायित्वों का विवरण प्रस्तुत करना होगा।
  • संशोधन विधेयं के द्वारा 30 दिन की समय-सीमा समाप्त कर दी गई, अब लोकसेवक अपनी सम्पत्तियों और दायित्वों की घोषणा सरकार द्वारा निर्धारित रूप में एवं तरीके से करेंगे।
  • यह ट्रस्टियों और बोर्ड के सदस्यों को भी अपनी तथा पति/पत्नी की परिसंपत्तियों की घोषणा करने के लिये दिये गए समय में भी बढ़ोतरी करता है, उन मामलों में जहां वे एक करोड़ रुपये से अधिक सरकारी या 10 लाख रुपये से अधिक विदेशी धन प्राप्त करते हों।

लोकपाल की संरचना

  • लोकपाल एक बहु-सदस्यीय निकाय है जिसका गठन एक चेयरपर्सन और अधिकतम 8 सदस्यों से हुआ है।
  • लोकपाल संस्था का चेयरपर्सन या तो भारत का पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश या असंदिग्ध सत्यनिष्ठा व प्रकांड योग्यता का प्रख्यात व्यक्ति होना चाहिये, जिसके पास भ्रष्टाचार निरोधी नीति, सार्वजनिक प्रशासन, सतर्कता, वित्त, बीमा और बैंकिंग, कानून व प्रबंधन में न्यूनतम 25 वर्षों का विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव हो।
  • आठ अधिकतम सदस्यों में से आधे न्यायिक सदस्य तथा न्यूनतम 50 प्रतिशत सदस्य अनु. जाति/अनु. जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/अल्पसंख्यक और महिला श्रेणी से होने चाहिये।
  • लोकपाल संस्था का न्यायिक सदस्य या तो सर्वोच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश या किसी उच्च न्यायालय का पूर्व मुख्य न्यायाधीश होना चाहिये।
  • गैर-न्यायिक सदस्य असंदिग्ध सत्यनिष्ठा व प्रकांड योग्यता का प्रख्यात व्यक्ति, जिसके पास भ्रष्टाचार निरोधी नीति, सार्वजनिक प्रशासन, सतर्कता, वित्त, बीमा और बैंकिंग, कानून व प्रबंधन में न्यूनतम 25 वर्षों का विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव हो।
  • लोकपाल संस्था के चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु तक है।
  • सदस्यों की नियुक्ति चयन समिति की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
  • चयन समिति प्रधानमंत्री जो कि चेयरपर्सन होता है, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा नामित कोई न्यायाधीश और एक प्रख्यात न्यायविद से मिलकर गठित होती है।
  • लोकपाल तथा सदस्यों के चुनाव के लिये चयन समिति कम-से-कम आठ व्यक्तियों का एक सर्च पैनल (खोजबीन समिति) गठित करती है।

लोकपाल खोजबीन समिति

  • लोकपाल अधिनियम, 2013 के अधीन कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग उन अभ्यर्थियों की एक सूची बनाएगा जो लोकपाल संस्था का चेयरपर्सन या सदस्य बनाने के इच्छुक हों।
  • इसके बाद यह सूची उस प्रस्तावित आठ सदस्यीय खोजबीन समिति के पास जाएगी जो नामों को शॉर्टलिस्ट करेगी और प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित चयन समिति के समक्ष प्रस्तुत करेगी।
  • चयन समिति खोजबीन समिति द्वारा सुझाए गए नामों में से नाम चुन भी सकती है और नहीं भी चुन सकती।
  • सितंबर, 2018 में सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में एक खोजबीन समिति गठित की थी।
  • 2013 का अधिनियम यह भी प्रावधान करता है कि सभी राज्य सरकारें इस अधिनियम के लागू होने के एक साल के अंदर लोकायुक्त का पद स्थापित करें।

लोकपाल का क्षेत्राधिकार एवं शक्तियाँ

  • लोकपाल के क्षेत्राधिकार में प्रधानमंत्री, मंत्री, संसद सदस्य, समूह ए, बी, सी और डी अधिकारी तथा केंद्र सरकार के अधिकारी शामिल हैं।
  • लोकपाल का प्रधानमंत्री पर क्षेत्राधिकार केवल भ्रष्टाचार के उन आरोपों तक सीमित रहेगा जो कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, सुरक्षा, लोक व्यवस्था, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष से संबद्ध न हों।
  • संसद में कही गई किसी बात या दिये गए वोट के मामले में मंत्रियों या सांसदों पर लोकपाल का क्षेत्राधिकार नहीं होगा।
  • इसके क्षेत्राधिकार में वह व्यक्ति भी शामिल है जो ऐसे किसी निकाय/समिति का प्रभारी (निदेशक/ प्रबंधक/सचिव) है या रहा है जो केंद्रीय कानून द्वारा स्थापित हो या किसी अन्य संस्था का जो केंद्रीय सरकार द्वारा वित्तपोषित/नियंत्रित हो और कोई अन्य व्यक्ति जिसने घूस देने या लेने में सहयोग दिया हो।
  • लोकपाल अधिनियम यह आदेश देता है कि सभी लोकसेवक अपनी तथा अपने आश्रितों की परिसंपत्तियों व देयताओं को प्रस्तुत करें।
  • इसके पास CBI की जाँच करने तथा उसे निर्देश देने का अधिकार है।
  • यदि लोकपाल ने कोई मामला CBI को सौंपा है तो बिना लोकपाल की अनुमति के ऐसे मामले के जाँच अधिकारी को स्थानांतरित नहीं किया जा सकता।
  • लोकपाल की जाँच इकाई को एक सिविल न्यायालय के समान शक्तियाँ दी गईं हैं।
  • विशेष परिस्थितियों में लोकपाल को उन परिसंपत्तियों, आमदनी, प्राप्तियों और लाभों को जब्त करने का अधिकार है जो भ्रष्टाचार के साधनों से पैदा या प्राप्त की गई हैं।
  • लोकपाल को ऐसे लोकसेवक के स्थानांतरण या निलंबन की सिफारिश करने का अधिकार है जो भ्रष्टाचार के आरोपों से जुड़ा है।
  • लोकपाल को प्राथमिक जाँच के दौरान रिकार्ड को नष्ट करने से रोकने का निर्देश देने का अधिकार है।

सीमाएँ

  • लोकपाल संस्था भारत की प्रशासनिक संरचना में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में बेहद ज़रूरी परिवर्तन बदलाव ला सकती है, लेकिन इसके साथ ही साथ उसमें कुछ खामियाँ और कमियाँ भी हैं जिन्हें दुरुस्त किये जाने की आवश्यकता है।
  • संसद द्वारा लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 पारित होने के पाँच वर्ष बाद किसी तरह से लोकपाल की नियुक्ति हो पाई, जो राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी का संकेतक है।
  • लोकपाल अधिनियम में राज्यों से भी इसके लागू होने के एक साल के भीतर लोकायुक्त नियुक्त करने के लिये कहा गया है, परंतु केवल 16 राज्यों ने लोकायुक्त की स्थापना की।
  • लोकपाल राजनीतिक प्रभाव से मुक्त नहीं है क्योंकि स्वयं नियुक्ति समिति राजनीतिक दलों के सदस्यों से गठित है।
  • लोकपाल की नियुक्ति में एक प्रकार से चालाकी की जा सकती है क्यों कि यह निर्धारित करने का कोई मानदंड नहीं है कि कौन एक ‘प्रख्यात न्यायविद’ या ‘सत्यनिष्ठा का व्यक्ति’ है।
  • वर्ष 2013 का अधिनियम व्हिसल ब्लोअर को कोई ठोस सुरक्षा नहीं देता। यदि आरोपी व्यक्ति निर्दोष पाया जाए तो शिकायतकर्त्ता के विरुद्ध जाँच शुरू करने का प्रावधान लोगों को शिकायत करने से हतोत्साहित ही करेगा।
  • इसकी सबसे बड़ी कमी न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना है।
  • लोकपाल को कोई संवैधानिक आधार नहीं दिया गया है और लोकपाल के विरुद्ध अपील का कोई पर्याप्त प्रावधान नहीं है।
  • लोकायुक्त की नियुक्ति से संबंधित विशिष्ट विवरण पूरी तरह से राज्यों पर छोड़ दिया गया है।
  • कुछ सीमा तक CBI की कार्यात्मक स्वतंत्रता की आवश्यकता को इसके निदेशक की नियुक्ति में इस अधिनियम में संशोधन करके पूरा किया गया है।
  • भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिकायत उस तिथि से सात साल के बाद पंजीकृत नहीं की जा सकती जिस तिथि को ऐसी शिकायत में कथित अपराध किये जाने का उल्लेख हो।

सुझाव

  • भ्रष्टाचार की समस्या से निपटने के लिये कार्यात्मक स्वायत्तता तथा मानव शक्ति की उपलब्धता दोनों मामलों में ओम्बुड्समैन (लोकपाल) संस्था को मजबूत किया जाए।
  • स्वयं को सार्वजनिक जाँच का विषय बनाने के लिये इच्छुक एक अच्छे नेतृत्व के साथ-साथ अधिक पारदर्शिता, अधिक सूचना के अधिकार तथा नागरिकों और नागरिक समूहों के सशक्तीकरण की आवश्यकता है।
  • लोकपाल की नियुक्ति ही स्वयं में पर्याप्त नहीं है। सरकार को उन मुद्दों को भी हल करना चाहिये जिनके आधार पर लोग लोकपाल की मांग करते हैं। मात्र जाँच एजेंसियों की संख्या में बढ़ोतरी करना सरकार के आकार में तो वृद्धि करेगा, परंतु यह आवश्यक नहीं है कि इससे प्रशासनिक कार्यों में भी सुधार आए।
  • इसके अलावा लोकपाल और लोकायुक्त उनसे वित्तीय, प्रशासनिक और कानूनी रूप से अवश्य स्वतंत्र होने चाहिये, जिनकी जाँच एवं जिन्हें दंडित करने के लिये उन्हें कहा जाता है।
  • लोकपाल और लोकायुक्त नियुक्तियाँ पारदर्शिता से होनी चाहिये ताकि गलत प्रकार के लोगों के पदस्थापित होने की संभावना को कम किया जा सके।
  • किसी एक संस्था या प्राधिकारी में अत्यधिक शक्ति के संचयन को टालने के लिये समुचित जवाबदेही व्यवस्था के साथ विकेंद्रीकृत संस्थानों के बाहुल्य की आवश्यकता है।

वर्तमान लोकपाल संस्था की स्थिति

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने इसी वर्ष मार्च के मध्य में सरकार का कार्यकाल समाप्त होने से कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पिनाकी चंद्र घोष का चयन देश के पहले लोकपाल के लिये किया, जिसे राष्ट्रपति ने विधिवत मंज़ूरी दे दी। लोकपाल में अध्यक्ष के अलावा चार न्यायिक और चार गैर-न्यायिक सदस्य भी नियुक्त किये गए हैं। न्यायिक सदस्यों में जस्टिस दिलीप बी. भोसले, जस्टिस प्रदीप कुमार मोहंती, जस्टिस अभिलाषा कुमारी और जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी हैं। इनके साथ SSB की पूर्व प्रमुख अर्चना रामसुंदरम और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव दिनेश कुमार जैन तथा महेन्द्र सिंह और इंद्रजीत प्रसाद गौतम को गैर-न्यायिक सदस्य बनाया गया है। इसके साथ ही देश में लोकपाल नाम की संस्था अस्तित्व में आ गई है।

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अभिरूचि (Aptitude)

Ashok Pradhan     July 03, 2019     No comments

क्या है?

अभिरूचि किसी क्षेत्र विशेष से संबंधित कौशल को सीखने की अथवा ज्ञानार्जन की जन्मजात या अर्जित क्षमता है।
आमतौर पर अभिरूचियाँ जन्मजात होती हैं लेकिन वे अर्जित भी हो सकती हैं।

सिविल सेवा के लिये अभिरूचि (Aptitude for Civil Services)

एक अच्छे सिविल सेवक में निम्नलिखित अभिरूचियाँ होनी चाहिये:
(i) भाषा पर सूक्ष्म पकड़ ताकि निर्णयन प्रक्रिया के समय नोटिंग और ड्राफ्टिंग में कोई समस्या ने हो।
(ii) उच्च तार्किक क्षमता।
(iii) निर्णयन व समस्या समाधान की सटीक क्षमता।
(iv) गणित तथा आँकड़ों को समझने की क्षमता।
(v) संचार तथा संप्रेषण का कौशल, जिसके माध्यम से समाज को उचित नेतृत्व प्रदान किया जा सके।
(vi) अपने आस-पास तथा विश्व की घटनाओं और समस्याओं को जानने तथा समझने की सामान्य आदत।

अभिरूचि व बुद्धिमत्ता (Aptitude and Intelligence)

सामान्यत: बुद्धिमत्ता के अंतर्गत हम व्यक्ति की सामान्य बौद्धिक क्षमताओं को मापते हैं जबकि अभिरूचि का संबंध एक क्षेत्र विशेष से होता है।
यह संभव है कि सामान्य बुद्धिमत्ता का उँचा स्तर होने के बाद भी किसी क्षेत्र विशेष के अभिरूचि परीक्षण में कोई व्यक्ति अच्छा निष्पादन न कर सके।

अभिरूचि व रूचि (Aptitude and Interest)

किसी व्यक्ति में किसी क्षेत्र के प्रति अभिरूचि का स्तर अधिक हो पर रूचि बिल्कुल न हो तो उस व्यक्ति की सफलता संदिग्ध होगी। जैसे-किसी व्यक्ति में शतरंज खेलने के लिये आवश्यक उँची तार्किक क्षमता है किंतु उसे शतरंज खेलना पंसद नहीं है।
जिस व्यक्ति में उच्च रूचि तथा उच्च अभिरूचि दोनों की एक साथ उपस्थिति का संयोग मिलता है वे अपने क्षेत्र में अतिशय सफल होते हैं, जैसे-सचिन तेंदुलकर, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आदि।

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संसदीय समितियाँ (Parliamentary committees)

Ashok Pradhan     July 03, 2019     No comments

मॉटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के आधार पर 1921 से संसदीय समितियाँ अस्तित्व में आई थीं, जिन्हें निरंतर व्यापक रूप से प्रतिष्ठापित किया जाता रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-105 में भी इन समितियों का ज़िक्र मिलता है।
अपनी प्रकृति के आधार पर संसदीय समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-
1. स्थायी समिति: ये स्थायी एवं नियमित समिति होती है, जिसका गठन संसद के अधिनियम के उपबंधों अथवा लोकसभा के कार्य-संचालन नियम के अनुसरण में किया जाता है। इनका कार्य अनवरत प्रकृति का होता है। इसमें निम्नलिखित समितियाँ शामिल हैं-
  • लोक लेखा समिति
  • प्राक्कलन समिति
  • सार्वजनिक उपक्रम समिति
  • एस.सी. व एस.टी. समुदाय के कल्याण संबंधी समिति
  • कार्यमंत्रणा समिति
  • विशेषाधिकार समिति
  • विभागीय समिति
2. अस्थायी या तदर्थ समिति: प्रयोजन विशेष के लिये तदर्थ समिति का निर्माण किया जाता है और कार्य पूरा होने के पश्चात् इसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह भी दो प्रकार की होती हैं-
  • जाँच समितियाँ: किसी तात्कालिक घटना की जाँच के लिये।
  • सलाहकार समितियाँ: किसी विधेयक इत्यादि पर विचार करने के लिये।
  • विभागीय स्थायी समितियाँ: ऐसी समितियों की कुल संख्या 24 है। प्रत्येक विभागीय समिति में अधिकतम 31 सदस्य होते हैं, जिसमें से 21 सदस्यों का मनोनयन स्पीकर द्वारा एवं 10 सदस्यों का मनोनयन राज्यसभा के सभापति द्वारा किया जा सकता है।
  • कुल 24 समितियों में से 16 लोकसभा के अंतर्गत व 8 समितियाँ राज्यसभा के अंतर्गत कार्य करती हैं।
  • इन समितियों का मुख्य कार्य अनुदान संबंधी मांगों की जाँच करना एवं उन मांगों के संबंध में अपनी रिपोर्ट सौंपना होता है।

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भारत की दार्शनिक प्रवृत्तियाँ (Philosophical trends of India)

Ashok Pradhan     July 03, 2019     No comments

भारत में पहली शताब्दी से पूर्व ही 6 आस्तिक व 3 नास्तिक दार्शनिक मतों का प्रतिपादन हो चुका था।

प्राचीन भौतिक दर्शन

प्रणेता

उच्छेदवादअजित केश कम्बलिन
अक्रियावादीपूरण कश्यप
नित्यवादीपकुद कच्चायन
नियतिवादीमक्खलि गोशाल
अनिश्चयवादीसंजय वेलट्पुत्त
  • आस्तिक मत को षडांग दर्शन सिद्धांत कहते हैं जिसमें सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत शामिल हैं।
  • नास्तिक मत में बौद्ध, जैन तथा चार्वाक प्रमुख हैं, इसे भौतिकतावादी दर्शन भी कहते हैं।

सांख्य

  • कपिल मुनि द्वारा प्रवर्तित इस दर्शन को भारत का प्राचीनतम दर्शन माना जाता है।
  • इनकी रचना है- तत्त्व समास।
  • बाद के आचार्यों में ईश्वरकृष्ण प्रमुख हैं और उनका ग्रंथ ‘सांख्यकारिका’ प्रसिद्ध है।
  • इसमें सत्कार्यवाद, विकासवाद तथा भौतिकता के साथ-साथ संख्या आधारित आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता प्रसिद्ध है।

योग दर्शन

  • इसके प्रणेता पतंजलि हैं जिन्होंने ‘योगसूत्र’ नामक ग्रंथ की रचना की।
  • ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का निग्रह, योगमार्ग का मूलाधार है।
  • भारत के इस दर्शन की महत्ता ऐसी रही कि वर्तमान दौर में यू.एन.ओ. द्वारा 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया है।

न्याय

  • न्याय-दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम माने जाते हैं, जिनका ग्रंथ ‘न्यायसूत्र’ इस दार्शनिक प्रवृत्ति का पहला ग्रंथ माना जाता है।
  • 12वीं सदी में न्याय दर्शन को नया रूप गंगेश उपाध्याय ने अपने ग्रंथ ‘तत्त्व चिंतामणि’ में दिया।
  • इस दर्शन में तर्क और प्रमाण के प्रयोग का महत्त्व प्रतिपादित हुआ है।

वैशेषिक

  • इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं जिन्होंने ‘कणाद-सूत्र’ रचा।
  • इन्होंने द्रव्य अर्थात् भौतिक तत्त्वों का विवेचन करते हुए परमाणुवाद की स्थापना की।

मीमांसा

  • कर्मकांड, यज्ञ आधारित इस दर्शन के प्रतिपादन में आचार्य जैमिनी का नाम अग्रगण्य है।
  • मीमांसा के अनुसार वेदों में कही गई बातें सदा सत्य हैं।
  • यह पुरोहितवाद, बाह्य आडंबर को बढ़ावा देने वाला दर्शन है।

वेदांत

  • ईसा-पूर्व दूसरी सदी में संकलित बादरायण का ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रंथ है। इसे उत्तर मीमांसा भी कहते हैं।
  • बाद में इस पर दो प्रख्यात भाष्य शंकराचार्य (9वीं सदी) और रामानुज (12वीं सदी) द्वारा लिखे गए।

वेदांत आधारित अन्य दार्शनिक मत

भाष्यकारवादभाष्य
शंकराचार्य (8–9वीं सदी)अद्वैतवादशंकरभाष्य
रामानुजाचार्य (11–12वीं सदी)विशिष्टाद्वैतवादश्रीभाष्य
मध्वाचार्य (13–14वीं सदी)द्वैतवादपूर्णप्रज्ञभाष्य
वल्लभाचार्य (15–16वीं सदी)शुद्धाद्वैतवादअणुभाष्य
निम्बार्काचार्य (13वीं सदी)भेदाभेदवादवेदांत परिजात सौरभ
  • ज्ञान आधारित इस दर्शन की पृष्ठभूमि में उपनिषद् था और ब्राह्मण-हिन्दू धर्म का अधिकांश दार्शनिक मतवाद इसी वेदांत दर्शन से प्रभावित-प्रेरित रहा है।

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